> काव्य-धारा (Poetry Stream): जीवन, प्यार और आत्मा-झलक : 2011

शुक्रवार, 25 नवंबर 2011

अद्वितीय मिलन

तुमको जो बिठाया मन-मंदिर में,
जलाया दीप वर्षों तक यादों का,
लौ में ख्वाहिशें सब खाक हो गयी हैं,
नहीं इन्तजार अब तुमसे मिलन का|

नैनों को जाने क्या हो गया है,
तुम्हारी मूरत दिखती है हरपल,
दूर नहीं पल भर के लिए भी,
मेरी रूह तुम्हारी रूह में है शामिल|

(c) हेमंत कुमार दुबे

शनिवार, 19 नवंबर 2011

एक प्रार्थना - माँ के लिए


उनकी सांसों से बनी धडकन मेरी,
तन में बिजली सी दौड़ गयी,
खून से उनके प्यास मेरी बुझती रही,
रुधिर तन में  सुधा बन गयी |

निवाला उनका मैंने भी खाया
स्वाद, सेहत से भरपूर ,
कुर्बानियों से पला-बढ़ा उनकी
करती रहीं जो उन्हें, हरपल मजबूर|

उनके करम से ही हुआ मजबूत मैं,
कैसे चुकाऊं क़र्ज़ - उनके दूध का,
हे विधाता! हर एक सांस मेरी ले लो,
पर सजा-संवार दो बुढ़ापा उनका|

हे मालिक,  संसार के नियामक!
ग़मों का साया रहे सदा उनसे दूर,
कटे सुख से जीवन की शाम,
माँ को  खुशियाँ मिलें भरपूर|


(c) हेमंत कुमार दुबे

Teardrops of moon

Silently weeps the moon
Over the shoulders of the hills
And the drops of tears
Spread in the air
Embracing everything they touch,
The fog makes visibility poor
And the heart sinks
Thinking of the coldness,
Of the long winter nights,
And the coldness of governments
Towards the tsunami of poor -
Hungry human children,
The jobless marooned youth, and
The senior elderly people, who
Roam in the night
And sleep without bed on street,
Bearing the burnt of poverty,
And carelessness of the civic society.

The winter has set-in -
In the moral values,
In the thinking of the well-to-do,
In the heart of society, but
When the sun will shine again tommorow,
The teardrop of the moon
Will glisten in the light
On the garden and wayside grass,
Telling the humanity to remember
The cold freezing night.

(c) Hemant Kumar Dubey

मंगलवार, 25 अक्तूबर 2011

दीप जलाओ, दीप जलाओ



दीप जलाओ, दीप जलाओ,
आई दिवाली रे|

लक्ष्मी-गणेश को घर में लाओ,
प्रेम-भक्ति से पूजन करके,
मेवे-मिठाईयों का भोग लगाओ,
सबको खिलाओ, खुद भी खाओ,
आई दिवाली रे|

आस-पड़ोस में खुशियाँ बाँटो,
सबके मन को हर्षित करते,
नाचो गाओ, धूम मचाओ,
आई दिवाली रे|

आत्मपद में प्रतिष्ठित होने को,
जल्दी-जल्दी कदम बढाओ,
दीप जलाओ, तम को भगाओ,
आई दिवाली रे!


(C) हेमंत कुमार दुबे

दीपोत्सव २०११ पर हार्दिक शुभकामनाएँ!!!

"दीपावली कैसे मनाएँ" लिंक पर क्लिक करें और विडियो देखें !!

साभार व सादर,

हेमंत कुमार दुबे

बुधवार, 19 अक्तूबर 2011

तुम्हारा खजाना


तुमने सदियों से,
जन्म-जन्मान्तरों से,
व्यक्त-अव्यक्त
बाँटा है खुले हाथ
वह खजाना,
जिसकी चाहत खुटती नहीं,
जिस पर कायम है
तुम्हारा संसार -
वह प्यार है !

(c) Hemant Kumar Dubey

God's Voices


Sitting on the branch of mango tree,
Amongst the green leaves,
You pour out your necter
Of universal love in a voice
That is melodious and sweet,
One that fills the heart
With love and peace.

God I hear you everywhere -
In cry of child, the calling of calfs,
The laughter of newly wed,
The chirp of the birds,
In the rustling of the tree leaves,
While also in the flow of wild streams,
In the thunder of the clouds,
The rumbling of the train,
And where not, you tell me.

In the murmering prayers,
The temple bells' ringing,
The music of orchestra,
The song of the singers,
The doorbell and the chime,
The humming of the bee,
Your sound is everywhere.

My heart pounds, and
The sound fill the ears, the mind,
And makes me realise
Your presence inside-outside me.

(c) Hemant Kumar Dubey

रविवार, 2 अक्तूबर 2011

मिठ्ठू मियां


“आम ले लो, आम !!”
फेरीवाले ने आवाज़ लगाई,
कच्चे-पक्के आमों ने
फिर तुम्हारी याद दिलाई |

मैना के संग बगीचे में
तुम्ही रोज बतियाते थे
कच्चे-पक्के आमों को
तुम साखों से गिरते थे |


बचपन के उन दिनों में
करना चाहता था प्यार,
तुम चंचल, नटखट को
अपने नन्हें हाथों से पकड़कर |


जमीं पर बैठते जब तुम
मैं दौड़ा चला जाता,
उड़ जाते थे तभी,
मैं रोता, माँ को बुलाता |

समय बीता, मैं बड़ा हुआ,
स्कूल छोड़ा, कॉलेज गया,
तमन्ना बचपन की जिन्दा रही,
क्या हुआ जो मैं बड़ा हुआ |

दैव-वश एक दिन ऐसा हुआ,
तुम बंधे नरपाश में
बेबस, बेसहारा, सिसकते से
आ गए मेरे सामने |

हाय! कैसा निर्दयी बहेलिया!
क्रोध अपना रोक मैं मुस्कुराया,
“कितने में दे दोगे भैया,
मान जाओ ले लो दस रुपैया |”


समवेत स्वर से दोंस्तों ने
फिर तुम्हे नाम दिया,
क्या हिंदू, क्या मुसलमान,
सभी बोले तुम्हें ‘मिठ्ठू मियां’|

तुम्हें आज़ादी की राह दिखाई
पिंजरे को खोलकर,
पर दैव, यह क्या हुआ –
तुम चलने लगे उड़ना भूलकर !

माथे पर हाथ रख,
मैं बैठा सोचता रहा,
‘यह हो नहीं सकता’
मन ही मन कहता रहा |


टेबलों, कुर्सियों पर फुदकते,
एक नई जिम्मेदारी बन गए,
कटे परों के साथ तुम
दया-करूणा के पात्र बन गए |


रात हुई और तुम सोये
मेरी चारपाई के नीचे,
और मैं जागता रहा रातभर
बिस्तर पर आँखों को भींचे |

कौवों, गौरयों, मैनाओं का स्वर
भोर में मुझे जगा नहीं पाया,
उठा देर से जब अलसाते,
तुम्हें आस-पास कहीं नहीं पाया |


अपनी खिडकी से नीचे देखा,
दो कौवे मंडरा रहे थे,
सड़क पर पड़ा हुआ कुछ
नोंच-नोंच खा रहे थे |

तभी किसी ने आवाज़ दी,
“भाई, तेरा तोता उड़ गया”,
मेरी सांस अटक-सी गयी,
मेरे भीतर कुछ मर-सा गया |

लख-चौरासी के इस छोर पर
बेसब्री से इंतज़ार है,
मानव बन तुम आओगे,
आस अब भी बाकी है |


© हेमंत कुमार दुबे


सोमवार, 26 सितंबर 2011

मेरे प्रभु!


मेरी हर एक साँस तुम्हारी है,
जैसे हैं हवा, पानी और जमीन,
सुबह की धूप, खुशबू तुम्हारी है
तुमसे ही परिपूर्ण है मेरा जीवन |


तुम तो करते कुछ भी नहीं
सब होता स्वत: कर्मों का परिणाम,
फिर भी सह लेते हर आक्षेप
माता-पिता, बंधू-सखा हो तुम |

मेरे प्रभु, तुम-सा कोई नहीं,
पीछे, अभी, आगे भी नहीं ,
जीवन-प्राण आधार मेरे तुम,
तुममे मुझमें कुछ भेद नहीं  !

(c) हेमंत कुमार दुबे

सोमवार, 19 सितंबर 2011

कविता


कविता बनती नहीं है
लबों पर आ जाती है,
कुछ पलों के लिए
मानस पर छा जाती है|

फूल पर मडराते हुए
भ्रमर की नादानी है
कभी खुशी, कभी गम
जिंदगी की कहानी है |

एक करिश्मा सी है,
खुदा की इनायत है,
कुछ तो सुकून मिले
दिल में अगर दर्द है|

हर चोट का मरहम
आंसूओं की कहानी है
कभी आँखों की चमक
कभी बहता पानी है|

इस गंगा में डुबकी
ईश्वर तक  है पहुंचाती,
टूटे स्वप्नों को जोडती
मुस्कान होठों पर लाती|


(c) हेमंत कुमार दुबे

रविवार, 18 सितंबर 2011

स्पर्श










लाग-इन करके फेसबुक पर,
मेरी प्रोफाइल पर जब तुम आती,
सुबह की गुनगुनी धूप में,
वो कमल कली सी खिल जाती,
फिर भंवरें गूंजते कवि-मन के,
सुरमयी-मधुमय होता समां|


पसंद 'गर तुम्हे आये कुछ
बस 'लाइक' कर देना
एक स्पर्श ही काफी है तुम्हारा
मेरा दिन बनाने को|

(c) हेमंत कुमार दुबे


गुरुवार, 15 सितंबर 2011

तुम्हारे खत


जला आया हूँ,
तुम्हारे लिखे खतों को,
जो मेरे पास थे
रखे हुए सहेज कर,
अब फैल गये है
हवा के संग,
धुआं बन कर|

पर बाकि है एक उम्मीद -
उस हवा का कोई झोंका
तुम तक पहुँचे
और याद दिलाये,
तुमने जो लिखा था,
जिससे मेरा दिल
वर्षों तक दु:खा था |

आज सुकून है,
पर भूला नहीं तुम्हे,
आगे भी नहीं मुमकिन,
क्योंकि  -
धुएं का एक कतरा
मेरी सांसों के साथ
फेफड़े में बस गया है,
मरते दम तक
तुम्हारी याद दिलाने को |


(c) हेमंत कुमार दुबे

My grandma

My grandma is a nice old lady,
She keeps herself vey bussy,
She wears colourful saries
And a spectacle on her nose,
Every evening she walks in the park,
But come home when it is dark
She helps in my studies,
At bed time tell good stories,
Grandma teaches things that are right,
I love, respect and bow to her feet.

(c) Hemant Kumar Dubey

बुधवार, 14 सितंबर 2011

यमुना









जो हवा आती थी
तुम्हें छूकर
उसकी खुशबू लुप्त हो गयी
शहर के कंकरिती जंगलों में
नालों के किनारे लोटते
शूकरों के साथ रहते
आशियाना बनाने की चाहत में
मानुषों की गन्दगी का शिकार
तुम आज की यमुना हो
जिसमे शहर का
कचरा बहता है |

सोमवार, 5 सितंबर 2011

निवेदन



 
तुम्हारी अलकों से मोती गिरे
मेरी पलकों में बस गए,
याद तुम्हारी आई तो
हिमालय की अलकनंदा बन गए |
गोते खाते जिंदगी बही जा रही,
अब तो आ जाओ प्रीतम,
कहीं यह किस्ती डूब न जाये
तुम्हारा इंतज़ार करते करते |


(c) हेमंत कुमार दुबे

शुक्रवार, 1 जुलाई 2011

यादों की पिटारी

यादों की पिटारी

कानों में मिसरी-सी घोलती
वो दादा जी की प्यारी बोली,
बचपन की जो याद दिलाती,
वर्षों बाद भी मेरे हम जोली |
...........
सुंगंधित फूलों की बगिया में
चम-चम चमकते जुगनुओं की
सितारों जड़ित पंख फैलाये
आंगन में उतरती परियों की|

........

'परिकल्पना ब्लागोत्सव' में 'चाँद के पार' पन्ने पर प्रकाशित मेरी  पूरी कविता पढ़ें |

बुधवार, 15 जून 2011

कौन जिम्मेदार है?

गंगा पुत्र कहलाने वाला,
ख़ामोशी से लड़नेवाला,
नहीं जुल्म से डरनेवाला,
हरि के आश्रित रहने वाला,
निगमानंद हो हरि में विलीन
खड़ा कर गए कई प्रश्न |

क्या लड़ाई भ्रष्टाचार से,
काला-बाजारी, अनीति से,
काले धन के अम्बार से
फिर बलि लेगी किसी की
देश के सपूत की ?

देशवासी कब तक सोयेंगे,
वोट की ताकत कबतक खोयेंगे,
दमन सहते कबतक रोयेंगे,
एक भूखा, दूसरे कबतक खायेंगे ?
राजनीति की बलि वेदी पर
कबतक मारे जायेंगे?

गंगा के देश के हित में,
भारत के जिम्मेदार सपूत का,
निगमानंद की मौत का
कौन जिम्मेदार है?
कौन सजा का हकदार है ?

पूनम का चाँद


आज पूनम की रात,
आकाश की ओर
उठती हैं नजरें,
ढूँढती हैं चारो तरफ,
चाँद आसमान में |

शशि का प्रकाश
दिखता क्यों नहीं,
पूछता है छोटा बच्चा
देश का लघु नागरिक|

चाँद को लगा है ग्रहण
कह दूँ तो
वह नहीं समझेगा
उसी तरह जैसे
झुग्गीवाला नहीं समझेगा |

एक पैकेट नमकीन
एक बोतल शराब
और ५०० का नोट
उसके वोट की शक्ति
ग्रहित कर देते हैं |

शशि के जैसे ही
भारत को ढक लिया है
फिर कुटिल राजनेताओं ने
प्रकाश की किरण का
थोडा इंतज़ार करो |

--- हेमंत कुमार दुबे

रविवार, 12 जून 2011

मेरा घर - चाँद के पार..


धरती का घर तो खिलवाड़ मात्र है,
खूबसूरत पर क्षणभंगुर
जैसे निर्जीव मिट्टी की दीवाल पर
बच्चे द्वारा बनी-टंगी तस्वीर |
घर तो मेरा वही है,
जिसमें दृश्यमान -
ऐसी अनगिनत तस्वीरें,
चाँद और सितारे जैसे दीये,
सूरज जैसे अनेकों बल्ब,
पृथ्वी जैसे गुल्दस्तों से सजा,
असीम प्रांगण लिए  -
जिसमे सिमटी है आकाशगंगाएँ,
अनगिनत-अनूठी सृष्टियाँ |

चाँद के पार



कहाँ है मेरा घर
दिल्ली में,
भारत में,
धरती पर
या आसमान में |

वहाँ...
जहाँ दृष्टि नहीं जाती,
मन व बुद्धि भी नहीं जाते,
वहीं मेरा घर है |

चर्म-चक्षुओं को
चाँद बड़ा सा दिखता है
नजदीक सा लगता है
इसलिए
घर मेरा थोडा आगे है
चाँद के पार |

---हेमंत कुमार दुबे

रविवार, 15 मई 2011

बूंद

सूरज की तपन से अकुलाकर
सागर से उठी बदल बनकर
बरसी फिर खंड-खंड होकर
तपती प्यासी धरती पर |

निकल कर बादलों से
बूंद जो धरती पर गिरी
बंजर पड़ी बगिया में
खिल गयी फूलों की क्यारी |

पहुंची जब धरती के अन्दर
निर्जीव पड़े बीजों के अन्दर
जग गया संचित संस्कार
हो गया जीवन का संचार |

गर्मी से बेहाल पड़े
जीवों को मिली राहत
एक बूंद की ही थी
पपीहे की चाहत |

सूखी नदिया में बन नीर
बूंद चली मिलने फिर
सागर से अपने घर
करती धरती का श्रृंगार |

बूंद तू ईश्वर का प्यार
तुझसे बना ये संसार
ईश्वर का सबसे नायाब
सबसे कीमती उपहार |

(C) सर्वाधिकार सुरक्षित : हेमंत कुमार दुबे

सोमवार, 25 अप्रैल 2011

मत कहो कविता शेष हो गई

दर्द तुम्हारा मेरा भी है
क्योंकि हमारी तलाश
कागज के पन्नों की है
जिन पर भाव हृदय के
अंकित होते है |


अभी प्राण बाकी हैं
कागजों पर ना सही
इन्टरनेट पर
जिन्दा है अभी भी
रूपांतरण हो गया है
जगह बदल गई है
तभी तो
तुमने लिखी मैंने पढ़ी है|

मत कहो,
मत कहो कविता शेष हो गई
दर्द होता है सीने में|


(C) सर्वाधिकार सुरक्षित: हेमंत कुमार दुबे

बुधवार, 20 अप्रैल 2011

आजादी के पर्व


शहीदों के  स्मारक  पर
लगते  हर  रोज  मेले ,
झांकते  पत्थरों  से ,
अक्षरों  से ,
एक - एक  वीर  बहादुर |

बच्चों  की  किलकारी ,
जुगल  जोडों  की  उन्मुक्त  हंसी ,
दोस्तों  के  ठहाके ,
कैमरे  के  अन्दर  बंद  होते ,
खुशिओं  के  स्मृति  चिन्ह |

इनमें  ही  कहीं  होगा ,
उनका  भी  परिवार ,
नाती -पोते,  
हँसते-खेलते -
औरों  की  तरह ,
लेते  साँस,
हवा  के  इन  झोंको  में ,
मानते  आजादी  के  पर्व ,
इंडिया  गेट  पर |


(C) हेमंत कुमार दुबे

सपूत


बारिश की बूंदों ने
अभिषिक्त किया,
तन-मन तृप्त किया,
गर्मी से मिली राहत |

वृक्षों के पत्तों को

छूकर बहती हवा,
कहती हवा,
तुम धन्य धरा के
रक्षक - सपूत |



(C) हेमंत कुमार दुबे

पैसों का प्रभाव



बेटा  क्या, क्यों और किससे  पढ़ेगा ,
सब   तय  हो  जाता  है ,
जेबों   में  जब  न  हो  लक्ष्मी ,
सब गुड़-गोबर  हो  जाता  है |

बूढों  की  कौन  करेगा  सेवा ,
इस  पर  होड़  मच  जाती  है ,
पितृदेव  कहलाते  पापा ,
जब  मोटी  पेंसन  आती  है |

जन्मदिन  पर  बच्चों  के ,
दादा  जब  देते  नहीं  उपहार ,
बेटा-बहू होते नाराज़  
भूलते  माँ -बाप  के  उपकार |

भाई-भाई को तोड़ रहा
दोस्त बन जाते अनजान ,
बेमानी बने सब रिश्ते-नाते
पैसा बन गया है शैतान | 


(C) सर्वाधिकार सुरक्षित - हेमंत कुमार दुबे  

शुक्रवार, 15 अप्रैल 2011

रश्मि-प्रभा


सुमित्रा जी की नूरानी निगाहों से
बरसती अविरल अमृत की धारा से
सिंचित कोमल मन की
शशि किरणों सी रश्मि निहाल हुई
आशीष सदा निज ईश कृपा
ब्लॉग जगत में दिनकर प्रभा
अक्षर-अक्षर दिखतीं सर्वत्र |

--- प्रसिद्ध  कवयित्री रश्मि प्रभा दीदी को सादर समर्पित |  

तस्वीर

अपना पर्स खोलो...
मैं जानता हूँ उसके अन्दर
एक छोटा सा शीशा है,
जिसमें बड़ी साफ  तस्वीर
आती है नज़र |

देखो -
क्या यह वही है
जिसे तुम जानती हो
पहचानती हो ?

यदि नहीं है वह तस्वीर -
आँखों को मींचो,
होंठों को हल्का फैलाओ,
माथे के बल को
थोडा आराम दो,
बिंदी को थोडा
सीधा कर दो |

माना
अभी मौसम ठीक नहीं है
हवाएं गर्म हैं !
आँधियों से मत डरो,
थोडा इंतजार करो |

इंतजार की घड़ियाँ
परीक्षा की होती हैं,
छोटी, पर लम्बी दिखाती हैं,
असह्य होती हैं |

तूफान में तेजी होती है,
हिला देता है,
डरा देता है,
पर टिकता नहीं देर तक |

अपने को पहचानो
थोडा याद करो -
कई तूफान आये और गए
नहीं बिगाड़ पाए कुछ भी |
तुम निडर हो,
धैर्यवान हो,
बुद्धि-विवेक से परिपूर्ण |

हवाएं कितनी भी तेज़ हों
तुम्हें डिगा नहीं पाएंगी,
तिल भर खिसका नहीं पाएंगी,
तुम गिरिजा की मानस पुत्री |

फिर मैं...
हमेशा साथ तुम्हारे,
जैसे अर्जुन के रथ पर
कुरुक्षेत्र के समरांगन में |

चाहता हूँ देखना
विकट परिस्थितियों में
वही तुम्हारी तस्वीर -
मुस्कुराती, शांत,
साहस व धैर्य से परिपूर्ण
जिसे देखना चाहती थी
तुम जाने कब से,
जो अब देख रही तुम
अपने छोटे दर्पण में |
(c) हेमंत कुमार दुबे

बुधवार, 13 अप्रैल 2011

नैना देवी - एक दृश्य

नैना के दर्शन को 
रात को जब चला 
छबि अनूठी
नैनों में बस गयी |

पहाड़ की चोटी को  
देखा तो लगा
मानो मोतियों की 
माला पहने 
मुस्कुरा रही हैं 
नैना देवी |

आकाश की तरफ देखा
टिमटिमाते तारे 
दिवाली मनाते 
नजर आये |

धरती की तरफ देखा - 
सितारों जड़ी, 
काली शाल ओढ़े, 
मानो कोई दुल्हन 
खामोश बैठी हो
सकुचाती - लजाती |


(c) हेमंत कुमार दुबे 

मंगलवार, 12 अप्रैल 2011

नए युग का महासंग्राम - महाभारत


तुमने हमने मिलकर
उसे बनाया,
सीने से लगाया
पुचकारा, सहलाया,
और सुख लिया
उसके होने का |

बड़ा किया उसे
खिला-पिलाकर
खून-पसीने की
ईमानदारी की
कमाई से
सुखों की लालच में |

वह बढ़ता रहा
दिन दूनी रात चौगुनी,
चिपककर
चूसता रहा
जोंक की तरह
एक एक कतरा,
और अब रोके नहीं रूकता
विकराल रूप ले
राहू की तरह
ग्रसने लगा है
हमें,
समाज को |

गूँज रहा है नाम
हर जेहन में,
गलिओं में,
मोहल्लों में,
डरने लगा है
खौफ से,
भ्रष्टाचार के
नुकीले पंजों से,
विकराल दाढ़ों से,
आज का इंसान |

दबी आवाज में
विरोध करता रहा था
हर ईमानदार,
पर अब -
पांचजन्य फूंक दिया है
कृष्ण बनकर
अन्ना हजारे ने |

अर्जुन बने
बाबा रामदेव ने
बजा दिया है देवदत्त,
बज गए है शंख,
हेगड़े, किरण के,
बज गए हैं
ढोल-नगारे,
भ्रष्टाचार के विरुद्ध
प्रारंभ हो गया है -
नए युग का महासंग्राम, 
महाभारत |

(c) हेमंत कुमार दुबे

सोमवार, 11 अप्रैल 2011

झुग्गियां


आसमान से जब भी देखता हूँ
हरदम
वही दिखती हैं
काले लिबासों में
काली किस्मत वाली
भूरे-स्याह
सीमेंट-कंकरीट के
जंगलों में,
जिसे आज का मानव
शहर कहता है,
पालीथिनो से पटे,
काले नालों के किनारे,

रेल की पटरिओं के साथ, 
समानान्तर,
शोक मनाती हुई 
मरी हुई मानवता का,
और फिर भी 
संभालती हुई
शहर की बची-खुची 
धड़कनों को - 
झुग्गियां |

बुधवार, 6 अप्रैल 2011

क्रिकेट युद्ध और हम

वर्ल्ड कप वो खेल रहे थे
टेंशन था
वहां भी
यहाँ भी
देश कि प्रतिस्था का
सवाल था
सिर्फ इतना सा -
करोड़ बड़ा या लाख |

हमारे करोड़ों में से
क्या उन लाखों में से
चुने हुओं से जीतेंगे |

डर था,
शायद इसलिए
हम भी रन बना रहे थे -
होठों में,
बुदबुदा रहे थे नाम,
जीत के लिए
सारथी
कृष्ण का  |

मंगलवार, 5 अप्रैल 2011

मैं और मेरी चाहत

नहीं चाहता लिखना,
कोई कहानी,
या कविता,
क्योंकि -
दोनों ही उपजेंगे 
दिलो-दिमाग से,
स्वप्नवत |

नहीं चाहता देखना
कोई नई जगह,
नया दृष्य,
क्योंकि -
जो शाश्वत नहीं
उसे क्या देखना |

नहीं करना चाहता
तदात्म,
झूठ से,
झूठी दुनिया से,
क्योंकि - 
वह मैं  नहीं | 

ठहरो -
मैं करता हूँ
तदात्म,
खोल ज्ञान-चक्षु ,
निज - स्वरुप से |

बदल - अबदल में,
सत्य - असत्य में, 
धूप  - छांव में, 
मैं ही तो हूँ |

इसलिए तो लिखता हूँ ,
देखता हूँ,
पढ़ता हूँ,
सुनता हूँ , 
अनगिनत हाथों, नेत्रों, कानों से
और रहता हूँ 
हरपल हर जगह |

दुनिया क्या है

उसने पूछा
मुझे बताएं
कोई उपमा देकर समझाएँ
दुनिया क्या है,
कैसी है?

उत्तर सुन, 
नेत्र विस्मित, 
मुंह खुला,
अवाक रह गया |
एक शब्द काफी था -
गिरगिट | 


 

शुक्रवार, 25 मार्च 2011

संस्कार व भविष्य


जब मैं छोटा था तब 
घर की दीवालों पर
होती थी सज्जित तसवीरें -
हनुमान, तुलसीदास, शिवाजी
चन्द्र शेखर आज़ाद,  भगत सिंह,
जैसे वीरों की|

राम नाम कीर्तन , कबीर वाणी से
गूंजती थीं चौपालें, 
कहानियां कहते दादाजी 
हरिश्चंद्र, नचिकेता, 
राणा सांगा, प्रताप, चेतक की |

१५ अगस्त और २६ जनवरी 
खुशिओं के दिन होते,
गाते हम घूमते -
विजयी विश्व तिरंगा प्यारा ,
झंडा ऊँचा रहे हमारा ...
गाँव-गाँव व गली-गली |

अब बच्चों के बचपन को
देख सकुचा जाते हैं, 
जब पाते नहीं तनिक भी
देश भक्ति और संस्कार,
ठगे रह जाते हैं|

मोम - डैड की बोलों में
नहीं मिठास व आदर 
जानते नहीं कौन शिवाजी 
अबके बच्चे चाहते देखना 
डिस्नी लैंड व  हैरी पोट्टर |

कार्टून चैनलों पर 
मार-धाड़ और 
विदेशी सभ्यता देखते 
अब बच्चे भूल चले 
अपनी सांस्कृतिक विरासत |


जब राष्ट्र-गान बजता है
खड़े नहीं होते माँ-बाप 
बच्चों से क्या उम्मीद करें
वे तो करते हैं अनुशरण |

भावुकता , प्रेम , आदर्श 
नीति जैसी भावनाएं
अगर हम ही नहीं सिखायेंगे 
बच्चों की इस नयी नस्ल को
संस्कारी नहीं बना पाएंगे ,
जीवन के अवसान समय पर 
रोते ही रह जायेंगे |



गुरुवार, 24 मार्च 2011

मेरी झलक ...

क्या मैं शून्य हूँ?
नहीं -
उससे भी निराला |
शून्य तो मात्र प्रतिबिम्ब है
जैसे आकाश , हवाएँ,
लहराता समुन्द्र,
दूर - दूर तक फैली हरी भरी धरती,
प्रकाश और अँधेरा ,
स्वर -
वीणा, पखावज जैसे  साजों के,
नाद -
जैसे बादलों और बिजली के
सब के सब मेरे स्वरुप है |

पर मैं कौन हूँ
नहीं जानता था
तब-तक जब-तक
मिले नहीं सतगुरु |

देख नहीं सकती आँखें,
सुन नहीं सकते कान,
शब्द जहाँ नहीं जाते,
उसका जिह्वा कैसे करे बखान|

बताया सतगुरु ने -
हर चीज-वस्तु में
देता हुआ सबको सत्ता,
मैं हूँ सबमें मौजूद,
अचिन्त्य, अलग,
सबसे न्यारा,
सबसे प्यारा -
आत्म-तत्व , परमात्म-तत्व |