> काव्य-धारा (Poetry Stream): जीवन, प्यार और आत्मा-झलक : जून 2013

बुधवार, 26 जून 2013

बरसती आँखें




बरस बरस से बरसती आईं आँखें
तेरे दर्शन को तरसती हैं ये आँखे
तुम आई तो खुशी से बरसी आँखें
तुम गई तो रातों को बरसी आँखें
 
कितने मेघ छुपे हैं इन आँखों में
कितने जल-चक्र लगे हैं आँखों में
तुमको बसा लिया हैं इन आँखों में
फिर भी सैलाब भरा है आँखों में
 
विरह का दर्द इतना तीखा होता है
होठों से एक शब्द भी न निकलता है
गंगा जमुना की धारा नैनों से बहती है
बाँध बंद पलकों का रोक नहीं पाता है
 
तपन अपने देह में सूरज से नहीं है
विरह की अग्नि चारों तरफ लगी है
मिलन की आशा हरपल जगी हुई है
तन बचाने के लिए आँखों में सैलाब है |
 
© हेमंत कुमार दुबे

प्रेम से कदम मिलाओ साथी


 

 

एक फूल सी मिली है जिंदगी

खुशबू बिखेरने में मजा है

तुम मेरी रजा में रजामंद रहो

मेरी बस इतनी सी रजा है

 

न है कोई शिकवा या गिला

बड़ी मिन्नत से ये लम्हा मिला है

मैं तुम्हारी सुनूँ तुम मेरी सुनो

खुदा के दर को कारवां चला है

 

डोली में बैठा है वो मुसाफ़िर

जिसकी मर्जी से ये जहां चला है

भार तेरे मेरे कन्धों पर थोड़ा

बाकि औरों के कन्धों पर रखा है

 

प्रेम से कदम मिलाओ साथी

चलो मुसाफ़िर ले चलता जहाँ है

जो उसका अलिशाने घर है

अपना ठौर ठिकाना भी वहीं है|

 

© हेमंत कुमार दुबे

गुरुवार, 20 जून 2013

पीड़ा और सन्देश




तुम मेरे बारे में सबसे कह देना

कैसे उजाड़ दिया मैंने

सैकड़ों का घर

तोड़ दी वह सड़क

जिस पर चल कर राही

पाते थे मंजिल

लील लिया कैसे मैंने

हजारों के अरमानों को

 

करेंगे लोग तुम पर विश्वास

क्योंकि

यह समय तुम्हारा है

इसलिए तो की है तुमने

अपनी मनमानी

छेड़ा है धरा को

उसकी अभिन्न प्रकृति को

और नहीं छोड़ा मुझको

जीवन देने के लायक

भर दिया जहर ही जहर

 

वर्ना मैं

विष्णु चरणों से निकली

ब्रह्मा से सत्कारित

शिव के मस्तक की शोभा

पतित पावनी गंगा

जो देती आई जीवन युगों से

और तारती आई पुरखों को

औषधीय गुणों वाली

तबाही न मचाती

 

कलियुग में मेरा जो हाल है

क्या वह इन्द्र को पता नहीं

क्या वह विष्णु ने देखा नहीं

धरती जिस पर मैं बहती

क्या वह मेरी पीड़ा जानती नहीं

 

क्षिति, जल, पावक और गगन

सब जानते हैं मेरी व्यथा

और इसलिए उनके आँसू

जब बरसते हैं मेघ बन

तो आता है सैलाब मेरे अन्दर भी

और न चाहते हुए भी

टूट जाता है मेरा धैर्य

 

झांको, हे कलियुगी मानव

भोगी स्त्री-पुरुषों

अपने भीतर

और

बंद करो प्रताड़ना प्रकृति का

करो संकल्प, स्वस्थ सोच का

ईश्वर के उपहारों के संरंक्षण का

तभी बचेगा जीवन

तुम्हारा, आने वाली पीढ़ी का

और बनेगा सुखमय जीवन |

 

© हेमंत कुमार दुबे

तुलसी के प्रश्न


 
 
 
तू जानती है मुझको

क्योंकि

रहती हूँ तेरे घर में

और फिर

तुझसे पूछते हैं लोग

मेरे बारे में

क्योंकि

जिसे जग पूजता है

जिसके बिना भगवान

अतृप्त रह जाते हैं

जो औषधि बन

दूर करती है अनेकों बीमारियाँ

शारीरिक, मानसिक या अध्यात्मिक

और जिसके पास बैठने से

मिलती है शांति

वह मैं हूँ -

तेरे आंगन में उपेक्षित

तुलसी

 

कुछ प्रश्न मुझे सालते हैं

टीस से कराहती हूँ -

क्यों न बदली तेरी सोच

तेरी करनी

और मैं क्यों हुई उपेक्षित

रोज के एक लोटे जल से

सूखने को मजबूर

 

ईश्वर ने पनपाया मुझको

तेरे आँगन में

पर

प्राणिमात्र को आराम देने वाली

सबके सुख-दुःख की संगी

क्या प्यासे मारना है मेरी नियति है?

पूछ रही हूँ तुझसे

मैं तेरे आँगन की तुलसी |
 
 
(c) हेमंत कुमार दुबे

रविवार, 16 जून 2013

मानसून की पहली बारिश


 

 

खुली हुई खिड़की पर

गौरैया जब चहचहाई

सूरज की पहली किरण

जब बंद आँखों से टकराई

ठंढ़ी हवा का झोंका

जब पर्दों को लहरा गया

आँखें मलते-मलते

उठ बैठा मैं|

 

छत पर गमलों की कतार में

खिले थे कई पुष्प

जिनमें एक छोटी कली

भीगी-भीगी मुस्काई

हवा के झोंके से खिलखिलाई

और धीरे से कहा

जीवन की पहली बारिश

खूबसूरत होती है|

 

रात में जब जग सोया

मानसून की पहली बारिश में

धरती भीग रही थी

और मैं जानता हूँ

गर्मी के बाद बरसात

देती है राहत वैसे ही

जैसे लंबे अंतराल पर प्रिय मिलन

जिससे खिल उठता है

हर प्रेमी-प्रीतम का जीवन|


(c) हेमंत कुमार दुबे

 

मंगलवार, 4 जून 2013

तेरी यादें


 

 

मेरे जीवन में जब भी दुःख आया

तेरी मीठी यादों के सुख से दब गया

दिन सुख का जब जीवन में आया

तेरी यादों से उनका कद बढ़ गया

 

तेरी चुलबुली बातें और भोली हँसी  

मुझको हर दिन हर पल हंसाती है

तेरी यादों के सहारे मेरा जीवन चलता

वर्ना इस रूखे संसार में क्या रखा है |

 

© हेमंत कुमार दुबे

शनिवार, 1 जून 2013

यादों का पुल




जब हम मिले वर्षों बाद
सामने था यादों का पुल
लटकता हुआ
हमारी जिंदगी के दो छोरों से
जिस पर चल कर
हमें मिलना था
और फिर
इस पार या उस पार
जिंदगी को आगे बढ़ाना था

कितना खतरनाक लगता था
एक कदम बढ़ाते ही
पुल के टूटने का डर
गिर कर बिखरने का डर
रोंगटे खड़े करने वाला
भविष्य का डर

पर डर के आगे ही तो जीत होती है
और अब तक की जिंदगी में हार
न तुमने मानी थी न मैंने
तभी तो खड़े  थे
यादों के पुल के दो तरफ

हौसला देख कर एक दूजे को
अपने आप बढ़ गया
सांसों की गति को थामे
हमारा कदम पुल पर बढ़ गया

वह हिला जोरों से
चरमराया
पर हमारे कदमों को
रोक न पाया
और हार गया
हमारी हिम्मत और साहस के आगे
जीत का जश्न
गूंजने लगा चहुँ ओर |


© हेमंत कुमार दुबे