फेरीवाले ने आवाज़ लगाई,
कच्चे-पक्के आमों ने
फिर तुम्हारी याद दिलाई |
कच्चे-पक्के आमों ने
फिर तुम्हारी याद दिलाई |
मैना के संग बगीचे में
तुम्ही रोज बतियाते थे
कच्चे-पक्के आमों को
तुम साखों से गिरते थे |
तुम्ही रोज बतियाते थे
कच्चे-पक्के आमों को
तुम साखों से गिरते थे |
बचपन के उन दिनों में
करना चाहता था प्यार,
तुम चंचल, नटखट को
अपने नन्हें हाथों से पकड़कर |
करना चाहता था प्यार,
तुम चंचल, नटखट को
अपने नन्हें हाथों से पकड़कर |
जमीं पर बैठते जब तुम
मैं दौड़ा चला जाता,
उड़ जाते थे तभी,
मैं रोता, माँ को बुलाता |
मैं दौड़ा चला जाता,
उड़ जाते थे तभी,
मैं रोता, माँ को बुलाता |
समय बीता, मैं बड़ा हुआ,
स्कूल छोड़ा, कॉलेज गया,
तमन्ना बचपन की जिन्दा रही,
क्या हुआ जो मैं बड़ा हुआ |
स्कूल छोड़ा, कॉलेज गया,
तमन्ना बचपन की जिन्दा रही,
क्या हुआ जो मैं बड़ा हुआ |
दैव-वश एक दिन ऐसा हुआ,
तुम बंधे नरपाश में
बेबस, बेसहारा, सिसकते से
आ गए मेरे सामने |
तुम बंधे नरपाश में
बेबस, बेसहारा, सिसकते से
आ गए मेरे सामने |
हाय! कैसा निर्दयी बहेलिया!
क्रोध अपना रोक मैं मुस्कुराया,
“कितने में दे दोगे भैया,
मान जाओ ले लो दस रुपैया |”
क्रोध अपना रोक मैं मुस्कुराया,
“कितने में दे दोगे भैया,
मान जाओ ले लो दस रुपैया |”
समवेत स्वर से दोंस्तों ने
फिर तुम्हे नाम दिया,
क्या हिंदू, क्या मुसलमान,
सभी बोले तुम्हें ‘मिठ्ठू मियां’|
तुम्हें आज़ादी की राह दिखाई
पिंजरे को खोलकर,
पर दैव, यह क्या हुआ –
तुम चलने लगे उड़ना भूलकर !
पिंजरे को खोलकर,
पर दैव, यह क्या हुआ –
तुम चलने लगे उड़ना भूलकर !
माथे पर हाथ रख,
मैं बैठा सोचता रहा,
‘यह हो नहीं सकता’
मन ही मन कहता रहा |
मैं बैठा सोचता रहा,
‘यह हो नहीं सकता’
मन ही मन कहता रहा |
टेबलों, कुर्सियों पर फुदकते,
एक नई जिम्मेदारी बन गए,
कटे परों के साथ तुम
दया-करूणा के पात्र बन गए |
रात हुई और तुम सोये
मेरी चारपाई के नीचे,
और मैं जागता रहा रातभर
बिस्तर पर आँखों को भींचे |
कौवों, गौरयों, मैनाओं का स्वर
भोर में मुझे जगा नहीं पाया,
उठा देर से जब अलसाते,
तुम्हें आस-पास कहीं नहीं पाया |
भोर में मुझे जगा नहीं पाया,
उठा देर से जब अलसाते,
तुम्हें आस-पास कहीं नहीं पाया |
अपनी खिडकी से नीचे देखा,
दो कौवे मंडरा रहे थे,
सड़क पर पड़ा हुआ कुछ
नोंच-नोंच खा रहे थे |
तभी किसी ने आवाज़ दी,
“भाई, तेरा तोता उड़ गया”,
मेरी सांस अटक-सी गयी,
मेरे भीतर कुछ मर-सा गया |
“भाई, तेरा तोता उड़ गया”,
मेरी सांस अटक-सी गयी,
मेरे भीतर कुछ मर-सा गया |
लख-चौरासी के इस छोर पर
बेसब्री से इंतज़ार है,
मानव बन तुम आओगे,
आस अब भी बाकी है |
बेसब्री से इंतज़ार है,
मानव बन तुम आओगे,
आस अब भी बाकी है |
© हेमंत कुमार दुबे
सुंदर अभिव्यक्ति..... बेहतरीन पंक्तियाँ हैं...
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