> काव्य-धारा (Poetry Stream): जीवन, प्यार और आत्मा-झलक : 2012

शुक्रवार, 21 दिसंबर 2012

प्रश्न




सुलग रही है अपनी जिंदगी 
देख कर समाज में दरिंदगी
अजनबी हो रही है मानवता
बढ़ रही समाज में कायरता
मिट रही है दिलों से ममता
बढ़ रहा कर्तव्य पलायानता
प्रश्न हर नागरिक करता है
वह जो प्रेम-शांति से रहता है
खुद को ही अब मैं जला दूँ
या दरिंदों को ही झोक दूँ?
मिटा दूँ देश समाज के द्रोही 
या कायरता से मिटना है सही?


(c) हेमंत कुमार दूबे


रविवार, 9 दिसंबर 2012

कसक



जब मिली थी तुम पहली बार
उसने कहा था तुमसे
'मिलने आया हूँ क्योंकि
सपने में तुमने मुझे बुलाया है
आज सबेरे ही
मुर्गे ने बाग दे जगाया है
और जो हो सकता है साकार
उस स्वप्न से कैसे करूँ इंकार?'

शर्मा कर तुम्हारा मुस्कुराना
उसके साथ बेंच पर बैठ जाना
आत्मीयता से बतियाना
कुछ सुनना कुछ सुनाना
उसे भा गया
तुम्हारे मन में कुछ है
बता गया

मुलाकातों का
बैठकों का
मीठी बातों का
सपनों का
सिलसिला चलता रहा
न तुमने कहा
न उसने कहा
प्यार भीतर-भीतर पलता रहा

तुम्हें जीवन में आगे बढ़ना था
किसी बंधन में नहीं बंधना था
उसको नियति पर नहीं भरोसा था
और नियति ने उसके लिए
कुछ और ही सोचा था

राहें जुदा हुईं
एक मोड़ पर तुम फिर मिले
अस्वीकृति के डर ने
मन का चलने न दिया
उसने लबों को सी दिया
मन को समझा दिया
प्यार को दफना दिया

उसके अन्दर
कसक है
टीस है
भीड़ में तन्हाई है
जिंदगी से रुसवाई है

कसकता है
देख तुम्हारा मशीनी जीवन
सुबह से शाम की थकन
न चैन, न आराम
सिर्फ भागमभाग

तुम्हारे लिए कुछ न कर पाने की
मजबूरी अपनी देख
वह कराह उठता है
दर्द से तडपता है

सीने में दफ़न
प्यार की मजार पर
रोते दिल को देखकर
पल-पल उठती है कसक -
अनजान डर से क्यों डरता रहा
जुदा होकर पल-पल मरता रहा
क्यों न किया इजहार
जब किया तुमसे प्यार
तीन शब्द
जिंदगी बदल जाते शायद|

(c) हेमंत कुमार दूबे










मंगलवार, 27 नवंबर 2012

ई-पत्र



कागज हो गया है महंगा
डाक-व्यय भी बढ़ गया है
रफ़्तार से भागती जिंदगी में
टेक्नोलॉजी ही एक सहारा है

करों से कम हो गयी आय
लोग मिलते नहीं घर-घर जाय
सूझा दिया इन्टरनेट ने उपाय
फेसबुक पर हाय और गुड-बाय

कलम-दवात कहीं नहीं दिखती
अब ई-पत्र लिखे पढ़े जाते हैं
सभी हित-मित्र सगे-सम्बन्धी
फेसबुक व स्काइप से बतियाते हैं

पसंद आ जाती जब कोई बात
लाइक-टिपण्णी-साझा करते जाते हैं
कागजी एल्बम भी हुई पुरानी बात
छाया-चित्र फेसबुक पर दिखलाते हैं

उंगलियाँ नाचती हैं की-बोर्ड पर
खट-खट खटा-खट आवाज आती है
क्लिक-क्लिक होता चूहे पर
चिठ्ठी कंप्यूटर से भेजी जाती है

जवाब फ़ौरन आता जाता है
इंतज़ार की घड़ियाँ छोटी होती हैं
पसंद किये जाते जज्बात झटपट
क्लिकों में तस्वीरें उभर जाती हैं|

© हेमंत कुमार दूबे

सोमवार, 19 नवंबर 2012

तुम्हारे बचपन के दिन




याद आये पाली तुम्हारे बचपन के दिन
बेपरवाह जीवन के अनमोल सुनहरे क्षण
गुनगुनी धूप में खिलखिलाती उन्मुक्त हँसी
जिससे खिल उठता था घर आँगन उपवन

कभी अलमारी कभी परदे के पीछे से झांकती
चौंका देने वाली छुपन-छुपाई की धमाचौकड़ी
मूंगफली के दानों को नन्हे दांतों से तोड़ती
छोटे-छोटे बालसुलभ चेष्टाओं की अनोखी कड़ी

सर्दियों की धूप में चिड़ियों को दाने चुगाना
सुमधुर कंठ से कोई गीत गाना गुनगुनाना
पेन्सिल से कॉपी पर घर-नदी-पहाड़ बनाना
रंगों को भर घूम-घूम चित्र सबको दिखाना

अपनी फोटो खिचाने को दौड़ कर आ जाना
अंकिता, गोलू, छोटी, छोटे के संग मुस्कराना
अलबम में खुद को ढूंढ कर खुश हो जाना
गुदगुदा रहा तुम्हारे बचपन का याद आना |

© हेमंत कुमार दूबे

रविवार, 18 नवंबर 2012

युग पुरुषों को भी जाना पड़ता





गाँधी गए, सुभाष गए, बाल ठाकरे जी का भी हुआ प्रयाण |
अंत समय में सब धोखा देते हैं, तन, मन, बुद्धि और प्राण ||

युग पुरुषों को भी जाना पड़ता है, समझ ले रे नादान मन |
काम न आते निज तन के जन्मे, प्रिय प्राणेश्वरी व स्वजन||

संतावना देता कोई खड़ा, कंधे पर ले जाता कोई श्मसान |
महल-अटारी कुछ काम न आते, छूट जाता है सारा धन ||

राम नाम जो जीभ रखा, जिसने किया भजन-सुमिरन |
ऐसे मानुस ही तरते है, बाकि भटकते लख-चौरासी वन ||

(c) हेमंत कुमार दूबे

=> भारत की राजनीति का एक स्तंभ, बाल ठाकरे जी,  आज पञ्च तत्व में विलीन हो गए | कभी मिला नहीं पर जानता हूँ बाल ठाकरे जी एक धार्मिक, कर्तव्य परायण व कर्मठ  व्यक्ति थे | काव्य के द्वारा यह श्रद्धा-सुमन उन्हें सादर समर्पित है| ऊँ शांति ... शांति... शांति..

शुक्रवार, 16 नवंबर 2012

माँ के हैं अनगिनत उपकार



दो शब्द है बड़े अनूठे
एक ओम्, एक माँ
एक सृजक इस जग का
एक मेरा, वह मेरी माँ

खुद गीले में सो जाती थी
सूखे में मुझको रख कर
मेरा उदर भरती थी माँ
खुद भूखी रहकर दिनभर

सर्दी न लग जाये मुझको
गरम कपड़े पहना देती थी
अपने लिए नहीं एक पर
मेरे लिए स्वेटर बुनती थी

दीखता नहीं उसे फिर भी
सुई से बटन टांकती थी
अपने लिए पुराने कपड़े
मेरा बदन नए से ढांकती थी

सुन्दर मुझको बनाकर वो
काला टीका लगा देती थी
रोता था जब बेरोकटोक
नजर मेरी उतारती थी

राजा बेटा कह कर वो
रानी माँ बन जाती थी
जिद करता जब घूमने की
घोड़ा-गाड़ी बन जाती थी

पढ़ना-लिखना आता न था
मुझको पढ़ते देख खुश होती
आता प्रथम अपनी कक्षा में
माँ खुशी से झूम उठती

विवाह का समय जब आ पहुंचा
माँ ने बनवाये ढ़ेरों गहने  
नई नवेली दुल्हन के लिए
उसने सजाये जाने कितने सपने

न्योछावर किया माँ ने सुख
बहू के लिए मन में थी ममता
सुख दुःख को समझकर नश्वर
परिवार को देती रही शीतलता

अरमान रह गए कई अधूरे
माँ ने फिर भी संतोष किया
बेटे के घर जन्मे दो बेटे
समय का पहिया घूम गया

माँ समान नहीं कोई जग में
बात ध्यान से सभी सुनो
माँ के हैं अनगिनत उपकार
थक जाओगे मत गिनो |

(c) हेमंत कुमार दूबे

गुरू बिन ज्ञान नहीं है जग में




बचपन बीता, बीती जवानी
शरीर बुढ़ापा अब है आया
पोथी पढ़ी-पढ़ी जनम गवायाँ
ईश्वर का मर्म नहीं पाया

संगी-साथी काम न आवें
माता-पिता का खोया साया
पत्नी बच्चों में मगन हो रही
माया ने हर पल भरमाया

गुरू बिन ज्ञान नहीं है जग में
पोथी-पोथी लिखा है पाया
कहाँ मिलेंगे भव नाव खिवैया
जहाँ गया वहीं गया ठगाया

काशी, मथुरा, उज्जैन में ढूंढा
कुम्भ मेले में भी हो आया
हार के जब ईश्वर को पुकारा
गुरूदेव से उन्होंने तुरंत मिलाया |

(c) हेमंत कुमार दूबे

बुधवार, 14 नवंबर 2012

मौन




वर्षों बाद मिलन
घड़ी भर का साथ
मन में शब्दों की चहलकदमी
बाहर भागती जिंदगी का शोर

निगाहें टिकी हुई
निहारती प्रीतम को
होंठ बंद
सांसों को पकड़ते
धडकनों को सुनते कर्ण
जड़वत तन

गहरा मौन
जिसमें शब्दों की चहलकदमी
द्रुतगति से सम्प्रेषण
जैसे बतियाती हुई चंद्र रश्मियाँ
दो पहाड़ियों के मध्य


मौन ने वह कह दिया
जो वर्षों से कहा न था
जोड़ दिए
दिल के तार
मिलन सम्पूर्ण हुआ
प्रेम से परिपूर्ण हुआ |

(c) हेमंत कुमार दूबे

मंगलवार, 13 नवंबर 2012

सच्ची दिवाली



ज्ञान हो जाये आत्मा-ज्योति का
परम-ज्योति में हो स्थिति
चाह घटे नश्वर संसार की
शाश्वत में हो जाये प्रीति

आतिशबाजी बहुत हो गयी
बँट गईं मेवे-मिठाईयां भी
जलाएँ दीपमाला भीतर की
होगी सच्ची दिवाली तभी  |

(c) हेमंत कुमार दूबे

=> दीपोत्सव की हार्दिक शुभकामनाएँ !!

शनिवार, 10 नवंबर 2012

गुड़िया मेरी



चांदनी-रथ पर हो सवार, आई है परी-सी गुड़िया मेरी |
छोटे हाथों, छोटे पावों को चलाती आई, ये गुड़िया मेरी ||
थोड़ी चंचल, थोड़ी नटखट, भोली-भाली है गुड़िया मेरी |
ईश्वर का उपहार, लाई जीवन में बहार, ये गुड़िया मेरी ||

जब हँसती, खिलते फूल, महक जाती है बगिया मेरी |
माँ की लाड़ली, दुलारी, बड़ी प्यारी है, ये गुड़िया मेरी ||
गोद में आते ही किलकारती-पुकारती है गुड़िया मेरी |
वैष्णवी नाम से पावन करती रहती है, ये गुड़िया मेरी ||

(c) हेमंत कुमार दूबे

=> वैष्णवी श्रीमति व श्री उमेश दूबे की कन्या हैं और मैं उसका फूफा हूँ | आज वह मेरे घर आई थी तो यह काव्य-गीत बना |

रविवार, 7 अक्तूबर 2012

भारत नाम गूंजेगा चहुओर




सुजलाम सुफलाम शस्य श्यामलं
प्यारी धरती भारत माता हमारी
इसकी कोख से जन्में हम
भारत भूमि प्राणों से प्यारी

वंदे मातरम, वंदे मातरम
बंकिम का प्यारा गीत गायेंगे
वतन के नौजवान हम
वतन पर मर मिट जायेंगे

नहीं डरेंगे हम किसी से
हिमालय जैसे अड जायेंगे
भारतवासी हम सब हैं
भारत नाम ही गुन्जाएंगे

चिंगारी हमने छोड़ दी
ज्वाला भी हम बन जायेंगे
वतन के नौजवान हम
वतन का साथ निभाएंगे

वे भ्रष्ट हो जाएँ सावधान
वे देशद्रोही सावधान
जनता के हाथ में है
वोटों का तीर और कमान

झुकेंगे अब नहीं
रुकेंगे अब नहीं
हम भारतीय है
इंडियन नहीं, इंडियन नहीं

जो समुन्दर पार के विदेशी थे
इंडिया नाम उन्होंने दिया
जो भारत के विरोधी थे
गुलामी में हमें बांध दिया

हम भरत महान की संतान
भारत नाम से हमारी संस्कृति
संस्कारों में हमारे भारत जुडा
ईश्वर प्रदत्त इसकी कीर्ति

वह करने का प्रण ले लिया
जिसमें देश का मान है
प्राण हथेली पर ले लिए
भारत में ही अपनी जान है

सपना जो देखा वीर सपूतों ने
भारत के लिए हुए न्योछावर
हम वह सपना साकार करेंगे
भारत नाम गूंजेगा चहुओर |

(c) हेमंत कुमार दूबे

अपने देश का नाम हर जगह, चाहे राष्ट्रीय मंच हो या अंतर्राष्ट्रीय, भारत ही होना चाहिए | इंडिया नाम विदेशियों ने दिया और आज भी गुलामी की इससे गंध आती है | इंडिया नाम हमें याद दिलाता है कि हम गुलाम रहे हैं जबकि  भारत नाम हमें अपनी संस्कृति, अपने संस्कारों, अपनी अखंडता, विश्व में संप्रभुता की याद दिलाता है  | भारत नाम हमें अपनी ऊँची कीर्ति की याद दिलाता है और हमारे अन्दर देश प्रेम का जज्बा भरता है और अपनी माटी से, अपनी जननी जन्म भूमि से जोड़ता है | प्रण लें कि हर जगह अपने देश को भारत नाम से ही बुलाएँगे और हर जगह इंडिया न लिख कर भारत ही लिखेंगे |  

गुरुवार, 4 अक्तूबर 2012

पता है मुझको दोस्त



मेरे जज्बातों से न खेल दोस्त 
आँखों में नमी देख ले 
इतना न उड़ हवा में 
खिसक जायेगी जमीं पांवों तले

कभी मेरे सुख दुःख का साथी था
आज गैरों के संग है 
क्या हुआ तेरे दिल को 
सोच तेरी क्यों तंग है

देख कर मेरी हालत 
आज तुझको जो हंसना आया
हँसेंगे तुझ पर वे सब
जिन्होंने तुझे भरमाया 

न खेल वह खेल 
जिसे खेलना आता नहीं
पता है मुझको दोस्त
तुझे हारना सुहाता नहीं

जो साथ खड़े तेरे
चंद दिनों के साथी हैं
यारी अपनी वर्षों से
हम बचपन के साथी हैं 

डर बर्बादी का मुझको नहीं
डरता हूँ सिर्फ तेरे लिए
दर्द जो दे रहा मुझको
बनेगा कल शूल तेरे लिए 

नेकी का बदला मिलता है
बदी भी रंग दिखलाती है 
रहम जो हो अपने पास में
तो रहमत भी मिल जाती है |

(c) हेमंत कुमार दूबे

बुधवार, 26 सितंबर 2012

मैं वही हूँ




मैं हिंदू नहीं
मुसलमान नहीं
सिख या ईसाई नहीं
बौद्ध या जैन नहीं
सिर्फ एक बन्दा हूँ
अपने आप में परिपूर्ण

देह वालों की नजरों में
धर्म वाला हूँ
जाति वाला हूँ
जीव हूँ
पर
मेरा सच
अटल सत्य है
जिसे लोग कहते हैं
ईश्वर या अल्लाह
उसका ही अश्क हूँ
स्वयं वही हूँ

कवि हूँ
कविता भी हूँ
शब्द हूँ
रचयिता भी हूँ
सृजन में आनंदित
आनंद का मूल हूँ

जिसे कहते हैं
सर्वशक्तिमान
हाजरा-हुजूर
उनसे परे नहीं मैं
वही हूँ

सृजक हूँ
अनेक रूपों में भासता हूँ
कण-कण में व्यापता हूँ
लड़ता हूँ लड़ाता हूँ
प्रेम से रहता हूँ
प्रेम करना सिखाता हूँ
बंदगी करता हूँ
बन्दा हूँ
बन्दे का मालिक भी
मैं ही मैं हूँ
कृष्ण हूँ
अर्जुन भी मैं ही हूँ

मेरे नाम अनेक
रूप अनेक
पर मैं
सबमें एक का एक
मेरे सिवा दूजा नहीं

स्वयं मैं ही
अंतरिक्ष रूपी मैदान बन
पृथ्वी, सूरज, चाँद, तारे बन
ग्रह और नक्षत्र उजियारे बन
जड़ और चेतन बन
खेलता हूँ अपने रंगमंच पर
खेल सृजन और संहार का

अपनी माया से
अक्सर मोहित हो जाता हूँ
अनेक रूपों में एक होते हुए
कवि, कविता और श्रोता
सृजक, सृष्टि और दृष्टा
पृथक-पृथक नजर आता हूँ
मैं अलबेला हूँ
बुलाओ चाहे जिस नाम से
मैं तो एक ही हूँ |

(c) हेमंत कुमार दूबे