> काव्य-धारा (Poetry Stream): जीवन, प्यार और आत्मा-झलक : जन दरबार में माफ़ी नहीं

शनिवार, 22 सितंबर 2012

जन दरबार में माफ़ी नहीं



देश के उन शासकों को कहूँगा
जिनने बेच दी है आत्मा अपनी
अब धृतराष्ट्र बने बैठे हैं
आमादा है देश बेचने को
ओट ले विदेशी निवेश का
और जो कहते हैं जनता से
पैसे पेड़ पर नहीं लगते

दशकों तक किया तुमने शासन
लूट तुम्हारी अब भी बाकी है
सींचा नहीं धरा को तुमने
पौध रोपना भी बाकी है
उम्र बहुत हो चुकी मगर
भूख पैसे की बाकी है
आँखों पर चश्मा चढ़ा
मगर रतौंधी काफी है
दीखता नहीं स्वार्थी तुम्हें
आगे हरियाली काफी है
लगाओ, सींचो पेड़ अगर तुम
फल रूपी पैसे काफी हैं ..
तुममें नहीं मगर हममें
देश-प्रेम अभी काफी है
अब भी सुधर जाओ वर्ना
जन दरबार में नहीं माफ़ी है ..


(c)
हेमंत कुमार दूबे

3 टिप्‍पणियां:

  1. देश के उन शासकों को कहूँगा
    जिनने बेच दी है आत्मा अपनी
    अब धृतराष्ट्र बने बैठे हैं
    आमदा(आमादा ) है देश बेचने को.........आमादा
    ओट ले विदेशी निवेश का
    और जो कहते हैं जनता से
    पैसे पेड़ पर नहीं लगते

    दशकों तक किया तुमने शासन
    लूट तुम्हारी अब भी बाकी है
    सींचा नहीं धारा (धरा )को तुमने.............धरा
    पौध रोपना भी बाकी है
    उम्र बहुत हो चुकी मगर
    भूख पैसे की बाकी है
    आँखों पर चश्मा चढ़ा
    मगर रतौंधी काफी है
    दीखता नहीं स्वार्थी तुम्हें
    आगे हरियाली काफी है
    लगाओ, सींचो पेड़ अगर तुम
    फल रूपी पैसे काफी हैं ..
    तुममे(तुममें ) नहीं मगर हममें..........तुममें
    देश-प्रेम अभी काफी है
    अब भी सुधर जाओ वर्ना
    जन दरबार में नहीं माफ़ी है ..

    (c) हेमंत कुमार दूबे

    बहुत सशक्त रचना है उस दौर की जब ईस्ट इंडिया कम्पनी की नव -अवतार की दलाई करने वाले बहुत से लोग हिन्दुस्तान में अब भी वही कर रहें हैं जो तब करते थे .

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  2. त्रुटियों का सुधार कर दिया गया है| बताने के लिए धन्यवाद|

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