आये थे वे हमारे देश
यात्री का स्वांग बना
खोजने नई सभ्यताएं
पर छुपा था उनमें
क्रूर शासक
यात्री से बने व्यापारी
कपड़ों के, मसालों के
और फिर
पसार दिए पैर
बेचने लगे
बंदूकें और तोप
देने लगे हवा
वैमनस्यता की
लडाने लगे
राजाओं को
लूटने लगे
प्रजा को
सर-आँखों पर बैठाया था
हमारे पूर्वज राजाओं ने
मान दिया था
अपनों को जीतने के लिए
मदद ली थी उनके दिमाग की
बमों की, हथगोलों की
बहाया था अपने भाइयों का
लहू
सत्ता की वासना से
राजाओं का लहू
जनता का लहू
संतों का लहू
गुरुओं का लहू
बह चला नदी बन
धरती लाल हो गई
फिर अवतरे
हरने को भू-भार
कृष्ण अनेको रूप में
सुन भारत माँ की पुकार
बनकर भारत के सपूत
चन्द्रशेखर, भगत सिंह
रामप्रसाद बिस्मिल,
राजगुरु
खुदीराम, सुभाष
जैसे अनेक वीर
न्योछावर किया अपना शरीर
नदियाँ फिर बहीं खून की
विदेशियों की
हमवतनों की
चीखे पिता और भाई
रोयीं माताएं और बहनें
दिया पूर्वजों ने
सर्वोच्च बलिदान
देश आज़ाद हुआ
वर्षों तक हम बढे
छूने जा रहे उन्नति का
शिखर
पर
हाय यह क्या हो रहा
इतिहास ने अब फिर से
दे दी है दस्तक
जनता जिससे है अनजान
शासक हो रहे मोहित
भ्रष्ट हो रही बुद्धि
५१ फीसदी एफ.डी.आई.
यानि ५१ फीसदी विदेशी
निवेश
यानि
व्यापार के जरिये
विदेशी ताकतों का
फिर वही वर्षों पुराना
स्वांग
भारत को उन्नत करने की आड़
में
साधना अपना हीन स्वार्थ
नेताओं का
वर्तमान शासकों का
अंधा निजी स्वार्थ
बढ़ा नहीं सकते जो देश की
ताकत
धकेलने को फिर से उद्धत
देश को गुलामी की ओर
आवाहन
जाति, धर्मं से ऊपर उठ
बन जागरूक
आज सब मिल सोचो
कैसे हो बेडा पार
भारत कैसे बचे
गुलामी की बेड़ियों से
झेले कैसे अपनों की मार
करें क्या जिससे
सुरक्षित हो व्यापार
रक्षित हो सीमाएं
करो जल्दी से उपचार
समय नहीं
कल हो जायेगी देर
तब पछताने के सिवा
हाथ में न होगा कुछ
केवल लहू की धार
बहेगी तन से
तुम्हारे, अपनों से |
© हेमंत कुमार दूबे
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें