शब्द को पकड़ने के लिए,
मानो गर्म रेत पर चलता है,
भावों को मूर्त बनाने हेतू,
मृग की तरह भटकता है |
तृष्णा जितनी तीव्र होती है,
मानो गर्म रेत पर चलता है,
भावों को मूर्त बनाने हेतू,
मृग की तरह भटकता है |
तृष्णा जितनी तीव्र होती है,
उतना ही निखरता है कवि,
मृग-मरीचिका सहता है,
नभ में तपते रहते रवि |
बन देश-समाज का कर्णधार,
शब्दों के संग खेलता है,
मिटाता दिलों की दूरियां,
अलख जगाता जाता है |
जब सबकी जेब भरती है,
कवि का दिल भरता है,
माया कैसी निराली है,
कवियों का बटुआ खाली है |
(c) हेमंत कुमार दूबे
'मृगतृष्णा' कविता संग्रह के पेज को इस लिंक http://www.facebook.com/mrigtrishnaa पर क्लिक करके देखें और Like करें | हम कवियों को प्रोत्साहन मिलेगा |
मृग-मरीचिका सहता है,
नभ में तपते रहते रवि |
बन देश-समाज का कर्णधार,
शब्दों के संग खेलता है,
मिटाता दिलों की दूरियां,
अलख जगाता जाता है |
जब सबकी जेब भरती है,
कवि का दिल भरता है,
माया कैसी निराली है,
कवियों का बटुआ खाली है |
(c) हेमंत कुमार दूबे
'मृगतृष्णा' कविता संग्रह के पेज को इस लिंक http://www.facebook.com/mrigtrishnaa पर क्लिक करके देखें और Like करें | हम कवियों को प्रोत्साहन मिलेगा |