हे तितली, तुम ईश्वर की सुंदर रचना
क्या तुम अपने सौंदर्य को जानती हो?
हाथ बढाकर क्यों नहीं पकड़ा तुम्हें
क्या तुम इसका कारण जानती हो?
तुम्हारी सुंदरता का मैं कायल हूँ
तुम्हारी चंचलता मन को मोहती है
नन्हें रंगबिरंगे पंखों का फड़फड़ाना
तुम्हारा उड़ना मुझे अच्छा लगता है
तुम्हारी उड़ान में महसूस करता हूँ
मानो मेरे पंख है और मैं उड़ रहा हूँ
फूलों को देख कर खुश हो जाता हूँ
उनमें भी खुद को ही तो देखता हूँ।
तितली, तुम मन को आंदोलित करती
तुम्हारे कारण ही धरती का श्रृंगार है
तुम्हारी स्वछंदता को नहीं बांधता क्योंकि
व्यक्त में अव्यक्त को तुमसे प्यार है।
© हेमंत कुमार दुबे 'अव्यक्त'
12.11.2016, नई दिल्ली
आपकी ब्लॉग पोस्ट को आज की ब्लॉग बुलेटिन प्रस्तुति डॉ. सालिम अली और ब्लॉग बुलेटिन में शामिल किया गया है। सादर ... अभिनन्दन।।
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