बरस बरस से बरसती आईं आँखें
तेरे दर्शन को तरसती हैं ये आँखे
तुम आई तो खुशी से बरसी आँखें
तुम गई तो रातों को बरसी आँखें
कितने मेघ छुपे हैं इन आँखों में
कितने जल-चक्र लगे हैं आँखों में
तुमको बसा लिया हैं इन आँखों में
फिर भी सैलाब भरा है आँखों में
विरह का दर्द इतना तीखा होता है
होठों से एक शब्द भी न निकलता है
गंगा जमुना की धारा नैनों से बहती है
बाँध बंद पलकों का रोक नहीं पाता
है
तपन अपने देह में सूरज से नहीं है
विरह की अग्नि चारों तरफ लगी है
मिलन की आशा हरपल जगी हुई है
तन बचाने के लिए आँखों में सैलाब है |
© हेमंत
कुमार दुबे
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