> काव्य-धारा (Poetry Stream): जीवन, प्यार और आत्मा-झलक : पीड़ा और सन्देश

गुरुवार, 20 जून 2013

पीड़ा और सन्देश




तुम मेरे बारे में सबसे कह देना

कैसे उजाड़ दिया मैंने

सैकड़ों का घर

तोड़ दी वह सड़क

जिस पर चल कर राही

पाते थे मंजिल

लील लिया कैसे मैंने

हजारों के अरमानों को

 

करेंगे लोग तुम पर विश्वास

क्योंकि

यह समय तुम्हारा है

इसलिए तो की है तुमने

अपनी मनमानी

छेड़ा है धरा को

उसकी अभिन्न प्रकृति को

और नहीं छोड़ा मुझको

जीवन देने के लायक

भर दिया जहर ही जहर

 

वर्ना मैं

विष्णु चरणों से निकली

ब्रह्मा से सत्कारित

शिव के मस्तक की शोभा

पतित पावनी गंगा

जो देती आई जीवन युगों से

और तारती आई पुरखों को

औषधीय गुणों वाली

तबाही न मचाती

 

कलियुग में मेरा जो हाल है

क्या वह इन्द्र को पता नहीं

क्या वह विष्णु ने देखा नहीं

धरती जिस पर मैं बहती

क्या वह मेरी पीड़ा जानती नहीं

 

क्षिति, जल, पावक और गगन

सब जानते हैं मेरी व्यथा

और इसलिए उनके आँसू

जब बरसते हैं मेघ बन

तो आता है सैलाब मेरे अन्दर भी

और न चाहते हुए भी

टूट जाता है मेरा धैर्य

 

झांको, हे कलियुगी मानव

भोगी स्त्री-पुरुषों

अपने भीतर

और

बंद करो प्रताड़ना प्रकृति का

करो संकल्प, स्वस्थ सोच का

ईश्वर के उपहारों के संरंक्षण का

तभी बचेगा जीवन

तुम्हारा, आने वाली पीढ़ी का

और बनेगा सुखमय जीवन |

 

© हेमंत कुमार दुबे

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