मैं एक चोटिल इंसान हूँ
जिसके बहते लहू की धारबन जाती है कविता
जिसकी करुण चीत्कार
मन वीणा को झंकृत कर देती
बन जाता है संगीत
दर्द को जब होठों पर
लाता हूँ
दिल उनके, जो मेरे अपने
हैं मेरी पीड़ा को जो समझते हैं
सर्द हो जाते हैं
बरबस मुझे कवि कहते हैं
क्योंकि वे समझते हैं
कविता मेरे लहू में बहती है
मेरी पुकार में रहती है
और वे उसे देख सकते हैं
सुन सकते हैं
पहचान सकते हैं
चोट कभी उन्होंने भी खायी है
पर मैं कवि नहीं हूँ
सिर्फ एक चोटिल इंसान
हूँ बेबस बेजान होता हुआ
जिसके घावों को कुरेदने के लिए
मंडरा रहे हैं नरभक्षी
मत पढ़ो मेरे लहू को
थाम लो मेरा हाथदे दो थोड़ा साथ
पहुँचा दो उस वैद्य के पास
जो जानता हो मेरा इलाज
रोक ले मेरा बहता लहू
मैं एक राही हूँ
मंजिल पहुँचने तक
जीना चाहता हूँ
सुनो, सुनो
मैं कवि नहीं हूँ |
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