जब हम मिले वर्षों बाद
सामने था यादों का पुल
लटकता हुआ
हमारी जिंदगी के दो
छोरों से
जिस पर चल कर
हमें मिलना था
और फिर
इस पार या उस पार
जिंदगी को आगे बढ़ाना था
कितना खतरनाक लगता था
एक कदम बढ़ाते ही
पुल के टूटने का डर
गिर कर बिखरने का डर
रोंगटे खड़े करने वाला
भविष्य का डर
पर डर के आगे ही तो जीत
होती है
और अब तक की जिंदगी में
हार
न तुमने मानी थी न
मैंने
तभी तो खड़े थे
यादों के पुल के दो तरफ
हौसला देख कर एक दूजे
को
अपने आप बढ़ गया
सांसों की गति को थामे
हमारा कदम पुल पर बढ़
गया
वह हिला जोरों से
चरमराया
पर हमारे कदमों को
रोक न पाया
और हार गया
हमारी हिम्मत और साहस के
आगे
जीत का जश्न
गूंजने लगा चहुँ ओर |
©
हेमंत कुमार दुबे
ब्लॉग बुलेटिन की आज की बुलेटिन कभी तो आदमी बन जाओ - ब्लॉग बुलेटिन मे आपकी पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !
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