> काव्य-धारा (Poetry Stream): जीवन, प्यार और आत्मा-झलक : हम

बुधवार, 13 फ़रवरी 2013

हम




सखी
इधर उधर क्या देखती हो
चंचल नैनों से
क्या मुझे ढूँढती हो?

हवाओं ने जो तरंगें
तुम्हारे कानों तक पहुंचाईं
उन तरंगों में
मैं हूँ

अरे सखी
अभी तुम्हारा पल्लू खिसकाया जिसने
वह पवन भी मैं हूँ

तुम्हारे पैरों की थिरकन
पायल की छम-छम
नृत्य और गीत
और कोई नहीं
मैं ही हूँ
मनमीत

मत देखो इत-उत
थोड़ी देर के लिए
कर लो आँखें बंद
सांसों की गति को
कर लो मंद –
तालबद्ध

कुछ सोचना नहीं
मन को भटकाना नहीं
बाधित करो चंचल को!

झाँकों, भीतर
गहरे
और गहरे
सुनो अंतर्नाद
महसूस करो आह्लाद

तुम्हारी रगों में
नस-नाडीयों में
सांसों में
धडकन में
एक संगीत बज रहा है

प्यारी सखी
अपने में जागो
सुनो यह ब्रह्मनाद
अनादिकाल से
जो बज रहा है

देखो, अपनी दिव्य दृष्टि से
कण-कण में व्याप्त
जिसे लोग कहते हैं
ईश्वर की सृष्टि
वह हमसे अलग नहीं
परिवर्तित होती
क्षण-क्षण उपजती
विलीन होती
अपना ही पसरा है
द्वैत नहीं कहीं
अद्वैत हम
अद्वैत हमारा है

दूर नहीं
विलग नहीं तुमसे
अब मत ढूँढना मुझको
मिला-मिलाया तुमसे
तुममें रचा बसा मैं
मुझमें तुम

एक
अचल
अनादि
अविनाशी
सब घटवासी
यत्र-तत्र
सर्वत्र
हम
और केवल
हम|

(c) हेमंत कुमार दुबे

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