> काव्य-धारा (Poetry Stream): जीवन, प्यार और आत्मा-झलक : माँ के हैं अनगिनत उपकार

शुक्रवार, 16 नवंबर 2012

माँ के हैं अनगिनत उपकार



दो शब्द है बड़े अनूठे
एक ओम्, एक माँ
एक सृजक इस जग का
एक मेरा, वह मेरी माँ

खुद गीले में सो जाती थी
सूखे में मुझको रख कर
मेरा उदर भरती थी माँ
खुद भूखी रहकर दिनभर

सर्दी न लग जाये मुझको
गरम कपड़े पहना देती थी
अपने लिए नहीं एक पर
मेरे लिए स्वेटर बुनती थी

दीखता नहीं उसे फिर भी
सुई से बटन टांकती थी
अपने लिए पुराने कपड़े
मेरा बदन नए से ढांकती थी

सुन्दर मुझको बनाकर वो
काला टीका लगा देती थी
रोता था जब बेरोकटोक
नजर मेरी उतारती थी

राजा बेटा कह कर वो
रानी माँ बन जाती थी
जिद करता जब घूमने की
घोड़ा-गाड़ी बन जाती थी

पढ़ना-लिखना आता न था
मुझको पढ़ते देख खुश होती
आता प्रथम अपनी कक्षा में
माँ खुशी से झूम उठती

विवाह का समय जब आ पहुंचा
माँ ने बनवाये ढ़ेरों गहने  
नई नवेली दुल्हन के लिए
उसने सजाये जाने कितने सपने

न्योछावर किया माँ ने सुख
बहू के लिए मन में थी ममता
सुख दुःख को समझकर नश्वर
परिवार को देती रही शीतलता

अरमान रह गए कई अधूरे
माँ ने फिर भी संतोष किया
बेटे के घर जन्मे दो बेटे
समय का पहिया घूम गया

माँ समान नहीं कोई जग में
बात ध्यान से सभी सुनो
माँ के हैं अनगिनत उपकार
थक जाओगे मत गिनो |

(c) हेमंत कुमार दूबे

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