झूठे गन्धर्वों की सभा में,
मोहिनी का छाया जादू
था|
राग-रागिनियों में सब उलझे,
रंग-रलियों का नशा चढ़ा
था|
प्यालों से पीने वाले,
मदहोश हुए से झूम रहे|
डींगों से अपनी बनते बड़े,
आपस में लड़ते-झगड़ते रहे |
तब एक फकीर बाबा ने,
नज़रों से कुछ ऐसा पिलाया|
बेहोशी से सब उठ बैठे,
भ्रम का छूट गया साया|
नूरानी निगाहों का जादू,
ईश्वर से मिलाने
वाला था|
नश्वर को शाश्वत मानने का,
भ्रम दूर भागने वाला
था|
आये कहाँ से गए किधर,
सूरत जिनकी भोली-भाली
है|
गन्धर्व बने फिर से मानव,
बाबा की बात निराली है|
© हेमंत कुमार दुबे
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