> काव्य-धारा (Poetry Stream): जीवन, प्यार और आत्मा-झलक : अप्रैल 2013

शनिवार, 6 अप्रैल 2013

एक है आत्मा-परमात्मा




सपने में मकान, वाहन आदि जो दीखता है
मन ही अनेक रूप धरता, सच-सा भासता है
जागने पर नींद से वह संसार उजड़ता है
स्वप्न-जगत तुझमें ही लीन हो जाता है

जान ले, जैसे रैन का जहान छुट गया है
घटनाएँ, लोग, सब कारोबार मिट गया है
वैसे ही सपना खुली आँख तू देखता है
बदलता जो पल-पल उसमें ही रमता है

कूर-कपट करके जो तू मन को रिझाएगा
जोड़ेगा एक-एक पाई फिर भी दुःख पायेगा
कमाई तेरी कोई दूसरा ही खायेगा, उडाएगा
अशांति होगी, लाख चौरासी चक्कर खायेगा

घर, परिवार, दुःख-रूप संसार, सब असार है
माया में व्यवहार सब, भ्रम का विस्तार है
भज तू राम को, जो इस संसार का आधार है
सुख-शान्ति का दाता, जो प्रेम सिन्धु अपार है

गरीब दुखिजनों का नित्य उपकार कर
सब में बसा रब, हर धर्म का लिहाज कर
मन में विचार, तू सत्य का व्यवहार कर
एक है आत्मा-परमात्मा, तू भेद न कर |


© हेमंत कुमार दुबे

मंगलवार, 2 अप्रैल 2013

गौरैया


 


घास-फूस लकड़ी के ऊपर

खपरैल की छत होती थी

आँगन में दाने चुगती

गौरैया घर में होती थी

 

रोज प्रात: ची-ची करती

गौरैया पहले उठ जाती थी

कभी इधर कभी उधर फुदक

बचपन में मन बहलाती थी

 

आती थी जिस जंगले से हवा

सखियों संग वह भी आती थी

चोंच में ला कर नीम के तिनके

बल्लियों के बीच घर बनाती थी

 

आँगन में धान से चावल

बड़ी सफाई से खाती थी

आहट पाते ही कदमों के

भूसी छोड़कर उड़ जाती थी

 

बने मकान ईंट-सीमेंट के

गौरैयों के आशियाने छुटे

लुप्तप्राय हो गयी गौरैया

जैसे बचपन के दिन बीते |

 

(c) हेमंत कुमार दुबे 
 
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