इस सावन की आखिरी बारिश
कभी खिलखिलाती
कभी ठहाके लगाती
भिगो रही थी
दो बदनों को
एक छाते के नीचे
आधे सूखे, आधे गीले
अल्हड मस्ती से टहलते
पानी के पतले रेलों पर
पैरों से छप-छप करते
सूनी सड़क पर तलाशते बचपन
कभी फैला कर बाँहों को
समेट लेने को मानो आतुर
बीते वर्षों के बिखरे मोती
बरस रहे जो अम्बर नैनों से
अद्वैत भाव से भरे हुए
प्रीतम वर्षों बाद मिले थे
प्रेम वर्षा को करते आत्मसात
एक-एक पल जी रहे थे
एक छाते के नीचे दोनों
फिर भी पूरे भीग रहे थे
रिमझिम-रिमझिम बूंदों से
तन भर मन भर |
© हेमंत कुमार दूबे
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