> काव्य-धारा (Poetry Stream): जीवन, प्यार और आत्मा-झलक : मई 2011

रविवार, 15 मई 2011

बूंद

सूरज की तपन से अकुलाकर
सागर से उठी बदल बनकर
बरसी फिर खंड-खंड होकर
तपती प्यासी धरती पर |

निकल कर बादलों से
बूंद जो धरती पर गिरी
बंजर पड़ी बगिया में
खिल गयी फूलों की क्यारी |

पहुंची जब धरती के अन्दर
निर्जीव पड़े बीजों के अन्दर
जग गया संचित संस्कार
हो गया जीवन का संचार |

गर्मी से बेहाल पड़े
जीवों को मिली राहत
एक बूंद की ही थी
पपीहे की चाहत |

सूखी नदिया में बन नीर
बूंद चली मिलने फिर
सागर से अपने घर
करती धरती का श्रृंगार |

बूंद तू ईश्वर का प्यार
तुझसे बना ये संसार
ईश्वर का सबसे नायाब
सबसे कीमती उपहार |

(C) सर्वाधिकार सुरक्षित : हेमंत कुमार दुबे