> काव्य-धारा (Poetry Stream): जीवन, प्यार और आत्मा-झलक : जुलाई 2013

मंगलवार, 23 जुलाई 2013

God’s unique ways



When called from inner depths
God listens to our prayers
Like rain His pure love showers
Pain, misery and all hurdles
Flow away like straws in river
The clouds of uncertainty clear
In the blue sky Sun shines bright
God shows us path and His light.


© Hemant Kumar Dubey

शनिवार, 13 जुलाई 2013

मेरी अभिलाषा


 
नदी किनारे आम्र वृक्ष पर
माँ-बाप सहित मेरा बसर था
रंग-बिरंगे पंक्षी मेरे साथी
एक सुंदर उपवन मेरा घर था
 
नई जगह तलाशते रहने का
नए सफ़र का मुझे शौक था
मेरे परिजन मना करते थे
लेकिन उड़ने का मेरा शौक था

उड़ता-उड़ता अनजान शहर में
आ पहुँचा मैं एक पेड़ पर
भूख प्यास से व्याकुल था
शहरी व्यवहारों से बेखबर

कुछ चने के दाने देखे
कटोरी में थोड़ा पानी था
उतर आया मैं जमीं पर
इतने में जाल मेरे ऊपर था

लोहे का एक पिंजरा आया
जिसके अन्दर था दाना-पानी
बड़े प्यार से पाला गया मैं
बदल गईं मेरी जिंदगानी

मिर्ची भात खिलाया जाता
नित नए पाठ सिखलाया जाता
दुहराता जब मैं बातों को
थपकी देकर फुसलाया जाता

उड़ने की मेरी चाहत रहती
पिंजरे को झुलाया जाता
मुझको भरमाने के लिए
मिट्ठू नाम से बुलाया जाता

अपनी भाषा भूल गया मैं
सीखा मानव जैसे बोलना
समझूँ चाहे मैं न समझूँ
हर लफ़्ज को दुहरा देना

जी हाँ, जी हाँ करते रहना
बन गयी अब मेरी मज़बूरी
आँसू चाहे मैं जितना बहाऊं
उड़ने की तम्मना न होती पूरी

पंख फडफडाता चाहे जितना
लौह सलाखों से टकराते हैं
आजादी के सब मेरे सपने
नित चकनाचूर हो जाते हैं

शहरी मानव में नहीं दया-भाव
वे मशीनों की तरह जीते हैं
रिश्ते-नाते सब उनके बेमानी
एक-एक पैसा जोड़ते रहते हैं

मैं पंक्षी उन्मुक्त गगन का
सुनी तुमने मेरी व्यथा-कहानी
मिट्ठू नाम मुझे नहीं चाहिए
नहीं पिंजरे का दाना पानी

मेरी अभिलाषा बस इतनी है
पिंजरे का दरवाजा खुल जाए
नित यही प्रार्थना ईश्वर से है
कैद से मुक्ति मिल जाए |

© हेमंत कुमार दूबे

 

मैं कवि नहीं हूँ




मैं एक चोटिल इंसान हूँ
जिसके बहते लहू की धार
बन जाती है कविता
जिसकी करुण चीत्कार
मन वीणा को झंकृत कर देती
बन जाता है संगीत

दर्द को जब होठों पर लाता हूँ
दिल उनके, जो मेरे अपने हैं
मेरी पीड़ा को जो समझते हैं
सर्द हो जाते हैं
बरबस मुझे कवि कहते हैं
क्योंकि वे समझते हैं
कविता मेरे लहू में बहती है
मेरी पुकार में रहती है
और वे उसे देख सकते हैं
सुन सकते हैं
पहचान सकते हैं
चोट कभी उन्होंने भी खायी है

पर मैं कवि नहीं हूँ
सिर्फ एक चोटिल इंसान हूँ
बेबस बेजान होता हुआ
जिसके घावों को कुरेदने के लिए
मंडरा रहे हैं नरभक्षी

मत पढ़ो मेरे लहू को
थाम लो मेरा हाथ
दे दो थोड़ा साथ
पहुँचा दो उस वैद्य के पास
जो जानता हो मेरा इलाज
रोक ले मेरा बहता लहू
 
मैं एक राही हूँ
मंजिल पहुँचने तक
जीना चाहता हूँ
सुनो, सुनो
मैं कवि नहीं हूँ |

 
© हेमंत कुमार दूबे