> काव्य-धारा (Poetry Stream): जीवन, प्यार और आत्मा-झलक : जनवरी 2012

गुरुवार, 26 जनवरी 2012

प्रश्नों के उत्तर


मैं,

अयोध्या नरेश राम,

तुमसे कहता हूँ,

तुम्हारे प्रश्नों के उत्तर,

क्यों नहीं रखा नगर में,

अपनी गर्भिणी सीता को,

क्यों भेजा वन में ?

जंगल में ही तो ईश्वर प्राप्त रहते है,

और फिर वाल्मीकि का संग,

उनकी अमूल्य शिक्षा,

क्या मिल पाती तुम्हें अवध में?



लव-कुश,

अगर होते तुम अयोध्या में,

क्या तुम मुझ जैसे बन पाते,

फिर माँ तुम्हारी,

मेरी जानकी,

धरती पुत्री,

अपनों के बीच ही तो रही,

दूर नहीं थी मुझ से,

वन में रह कर भी,

यह तो कष्ट सहा,

केवल तुम्हारे लिए,

तुम्हें निखारने के लिए|


(c) हेमंत कुमार दुबे

गणतंत्र दिवस मनाना है



गणतंत्र दिवस जब हम मनाते है,

राष्ट्रीय-गान जब गाते हैं,

रेडियो या टीवी पर देख-सुन

बहादुर बच्चों को, जांबाजों को,

हथियारों के प्रदर्शन को,

रंग-बिरंगी झांकियों को,

पारंपरिक नृत्यों को,

कुछ पल के लिए ही सही,

देश से जुड़ जाते हैं|



देशभक्ति तो सबके अंदर है,

अपनी आत्मा की तरह,

पर प्रतिदिन उसका गला घोंटने,

उसको मारने का काम,

हमलोग ही तो करते हैं|



गणतंत्र दिवस हम मनाएंगे,

अपने लिए,

अगली पीढ़ी के लिए,  

क्योंकि जीने के लिए

जैसे जरूरी है साँसें,

उसी तरह जरूरी है देश-प्रेम,

थोडा सी सही,

पर निश्चित तौर पर|



क्योंकि तभी तो

देश के नौनिहाल आगे बढ़ेंगे,

थामेंगे तिरंगा,

पहनेंगे फिर गाँधी टोपी,

अन्ना, अरविन्द या किरण के संग,

मिल कर बोलेंगे –

भष्टाचार मिटाना है|



गणतंत्र दिवस मनाना है,

देश-भक्ति को जगाना है,

क्योंकि देश से ही,

वजूद है हमारा|


(c) हेमंत कुमार दुबे

रविवार, 15 जनवरी 2012

माँ, तेरी याद आती है


दिन के उजालों में,
रात के अंधेरों में,
सुबह की धूप में,
दोपहर की तपिस में,
शाम के धुंधलके में,
दीपक की लौ में,
रसोई में बनते हुए,
हलवे की सुगंध में,
माँ, तेरी याद आती है|

अँधेरे से जब डरता हूँ,
कहीं लड़खड़ा कर गिरता हूँ,
उठता हूँ, संभालता हूँ,
तेरा ही नाम लेता हूँ,
माँ, तेरी याद आती है |

चाँद को देखता हूँ -
लगता है तेरा प्यार,
छन-छन कर,
पेड़ों के पत्तों बीच से,
मुझ पर बरसता है,
आह्लादित करता है,
माँ, तेरी याद आती है|

चिड़िया को देखता हूँ,
चोंच में दाना लिए,
घोसले पर बैठ कर,
ची-ची करते बच्चों संग,
माँ, तेरी याद आती है|

पार्क की बेंच पर,
देखता हूँ बैठे हुए,
जब किसी को बुनते,
रंग-बिरंगे स्वेटर,
माँ, तेरी याद आती है|

जीवन की आपा-धापी,
अब रास नहीं आती है,
पर पेट तो पालना है,
बच्चों को जिलाना है,
कर्तव्यों को निभाना है,
शहर की भीड़-भाड़ में,
खो गया हूँ पर,
माँ, तेरी याद आती है|

जानता हूँ गांव का जीवन -
शांत, सुखी, अच्छा है,
हरियाली है, खुशहाली है,
आ नहीं सकता काट कर,
अभी अपने शहरी बंधन,
मुझे मुक्त करने आजा,
माँ, तेरी याद आती है|

(c) हेमंत कुमार दुबे

शुक्रवार, 13 जनवरी 2012

आत्मचिंतन


जिंदगी ख्वाब है,
ख्वाबों में भी जिंदगी है
दोनों ही झूठे,
केवल तुम सच्चे हो|

सच की परिभाषा
सच ही जाने,
बाकी सब तो हैं
झूठे झूठके दीवाने|

दिखता है जो
मिट जायेगा,
चाहे हकीकत
या हो सपना|

जिससे दिखता है
उसको जब जानो,
सब विस्तार तुम्हारा,
फिर भी तुम निर्लेप -- सच्चे|


(C) हेमंत कुमार दुबे

**  सदगुरूदेव भगवान के प्रवचन और कृपाप्रसाद  से जो जाना वही कविता के रूप में प्रस्तुत किया हूँ **

रविवार, 8 जनवरी 2012

ख़ामोशी









शब्दों के अपने मायने होते हैं,
बोलने के भी कायदे होते हैं,
चुप रहकर जो कहा जाता है
उसके बहुत फायदे होते हैं|

मूक प्रार्थना से वर्षा भी होती है,
बीमार, लाचारों की दवा होती है,
सुनता है खुदा खुद की तभी,
ख़ामोशी से जब सजदा होती है|


(c) हेमंत कुमार दुबे