> काव्य-धारा (Poetry Stream): जीवन, प्यार और आत्मा-झलक : अक्तूबर 2011

मंगलवार, 25 अक्तूबर 2011

दीप जलाओ, दीप जलाओ



दीप जलाओ, दीप जलाओ,
आई दिवाली रे|

लक्ष्मी-गणेश को घर में लाओ,
प्रेम-भक्ति से पूजन करके,
मेवे-मिठाईयों का भोग लगाओ,
सबको खिलाओ, खुद भी खाओ,
आई दिवाली रे|

आस-पड़ोस में खुशियाँ बाँटो,
सबके मन को हर्षित करते,
नाचो गाओ, धूम मचाओ,
आई दिवाली रे|

आत्मपद में प्रतिष्ठित होने को,
जल्दी-जल्दी कदम बढाओ,
दीप जलाओ, तम को भगाओ,
आई दिवाली रे!


(C) हेमंत कुमार दुबे

दीपोत्सव २०११ पर हार्दिक शुभकामनाएँ!!!

"दीपावली कैसे मनाएँ" लिंक पर क्लिक करें और विडियो देखें !!

साभार व सादर,

हेमंत कुमार दुबे

बुधवार, 19 अक्तूबर 2011

तुम्हारा खजाना


तुमने सदियों से,
जन्म-जन्मान्तरों से,
व्यक्त-अव्यक्त
बाँटा है खुले हाथ
वह खजाना,
जिसकी चाहत खुटती नहीं,
जिस पर कायम है
तुम्हारा संसार -
वह प्यार है !

(c) Hemant Kumar Dubey

God's Voices


Sitting on the branch of mango tree,
Amongst the green leaves,
You pour out your necter
Of universal love in a voice
That is melodious and sweet,
One that fills the heart
With love and peace.

God I hear you everywhere -
In cry of child, the calling of calfs,
The laughter of newly wed,
The chirp of the birds,
In the rustling of the tree leaves,
While also in the flow of wild streams,
In the thunder of the clouds,
The rumbling of the train,
And where not, you tell me.

In the murmering prayers,
The temple bells' ringing,
The music of orchestra,
The song of the singers,
The doorbell and the chime,
The humming of the bee,
Your sound is everywhere.

My heart pounds, and
The sound fill the ears, the mind,
And makes me realise
Your presence inside-outside me.

(c) Hemant Kumar Dubey

रविवार, 2 अक्तूबर 2011

मिठ्ठू मियां


“आम ले लो, आम !!”
फेरीवाले ने आवाज़ लगाई,
कच्चे-पक्के आमों ने
फिर तुम्हारी याद दिलाई |

मैना के संग बगीचे में
तुम्ही रोज बतियाते थे
कच्चे-पक्के आमों को
तुम साखों से गिरते थे |


बचपन के उन दिनों में
करना चाहता था प्यार,
तुम चंचल, नटखट को
अपने नन्हें हाथों से पकड़कर |


जमीं पर बैठते जब तुम
मैं दौड़ा चला जाता,
उड़ जाते थे तभी,
मैं रोता, माँ को बुलाता |

समय बीता, मैं बड़ा हुआ,
स्कूल छोड़ा, कॉलेज गया,
तमन्ना बचपन की जिन्दा रही,
क्या हुआ जो मैं बड़ा हुआ |

दैव-वश एक दिन ऐसा हुआ,
तुम बंधे नरपाश में
बेबस, बेसहारा, सिसकते से
आ गए मेरे सामने |

हाय! कैसा निर्दयी बहेलिया!
क्रोध अपना रोक मैं मुस्कुराया,
“कितने में दे दोगे भैया,
मान जाओ ले लो दस रुपैया |”


समवेत स्वर से दोंस्तों ने
फिर तुम्हे नाम दिया,
क्या हिंदू, क्या मुसलमान,
सभी बोले तुम्हें ‘मिठ्ठू मियां’|

तुम्हें आज़ादी की राह दिखाई
पिंजरे को खोलकर,
पर दैव, यह क्या हुआ –
तुम चलने लगे उड़ना भूलकर !

माथे पर हाथ रख,
मैं बैठा सोचता रहा,
‘यह हो नहीं सकता’
मन ही मन कहता रहा |


टेबलों, कुर्सियों पर फुदकते,
एक नई जिम्मेदारी बन गए,
कटे परों के साथ तुम
दया-करूणा के पात्र बन गए |


रात हुई और तुम सोये
मेरी चारपाई के नीचे,
और मैं जागता रहा रातभर
बिस्तर पर आँखों को भींचे |

कौवों, गौरयों, मैनाओं का स्वर
भोर में मुझे जगा नहीं पाया,
उठा देर से जब अलसाते,
तुम्हें आस-पास कहीं नहीं पाया |


अपनी खिडकी से नीचे देखा,
दो कौवे मंडरा रहे थे,
सड़क पर पड़ा हुआ कुछ
नोंच-नोंच खा रहे थे |

तभी किसी ने आवाज़ दी,
“भाई, तेरा तोता उड़ गया”,
मेरी सांस अटक-सी गयी,
मेरे भीतर कुछ मर-सा गया |

लख-चौरासी के इस छोर पर
बेसब्री से इंतज़ार है,
मानव बन तुम आओगे,
आस अब भी बाकी है |


© हेमंत कुमार दुबे