> काव्य-धारा (Poetry Stream): जीवन, प्यार और आत्मा-झलक : अप्रैल 2011

सोमवार, 25 अप्रैल 2011

मत कहो कविता शेष हो गई

दर्द तुम्हारा मेरा भी है
क्योंकि हमारी तलाश
कागज के पन्नों की है
जिन पर भाव हृदय के
अंकित होते है |


अभी प्राण बाकी हैं
कागजों पर ना सही
इन्टरनेट पर
जिन्दा है अभी भी
रूपांतरण हो गया है
जगह बदल गई है
तभी तो
तुमने लिखी मैंने पढ़ी है|

मत कहो,
मत कहो कविता शेष हो गई
दर्द होता है सीने में|


(C) सर्वाधिकार सुरक्षित: हेमंत कुमार दुबे

बुधवार, 20 अप्रैल 2011

आजादी के पर्व


शहीदों के  स्मारक  पर
लगते  हर  रोज  मेले ,
झांकते  पत्थरों  से ,
अक्षरों  से ,
एक - एक  वीर  बहादुर |

बच्चों  की  किलकारी ,
जुगल  जोडों  की  उन्मुक्त  हंसी ,
दोस्तों  के  ठहाके ,
कैमरे  के  अन्दर  बंद  होते ,
खुशिओं  के  स्मृति  चिन्ह |

इनमें  ही  कहीं  होगा ,
उनका  भी  परिवार ,
नाती -पोते,  
हँसते-खेलते -
औरों  की  तरह ,
लेते  साँस,
हवा  के  इन  झोंको  में ,
मानते  आजादी  के  पर्व ,
इंडिया  गेट  पर |


(C) हेमंत कुमार दुबे

सपूत


बारिश की बूंदों ने
अभिषिक्त किया,
तन-मन तृप्त किया,
गर्मी से मिली राहत |

वृक्षों के पत्तों को

छूकर बहती हवा,
कहती हवा,
तुम धन्य धरा के
रक्षक - सपूत |



(C) हेमंत कुमार दुबे

पैसों का प्रभाव



बेटा  क्या, क्यों और किससे  पढ़ेगा ,
सब   तय  हो  जाता  है ,
जेबों   में  जब  न  हो  लक्ष्मी ,
सब गुड़-गोबर  हो  जाता  है |

बूढों  की  कौन  करेगा  सेवा ,
इस  पर  होड़  मच  जाती  है ,
पितृदेव  कहलाते  पापा ,
जब  मोटी  पेंसन  आती  है |

जन्मदिन  पर  बच्चों  के ,
दादा  जब  देते  नहीं  उपहार ,
बेटा-बहू होते नाराज़  
भूलते  माँ -बाप  के  उपकार |

भाई-भाई को तोड़ रहा
दोस्त बन जाते अनजान ,
बेमानी बने सब रिश्ते-नाते
पैसा बन गया है शैतान | 


(C) सर्वाधिकार सुरक्षित - हेमंत कुमार दुबे  

शुक्रवार, 15 अप्रैल 2011

रश्मि-प्रभा


सुमित्रा जी की नूरानी निगाहों से
बरसती अविरल अमृत की धारा से
सिंचित कोमल मन की
शशि किरणों सी रश्मि निहाल हुई
आशीष सदा निज ईश कृपा
ब्लॉग जगत में दिनकर प्रभा
अक्षर-अक्षर दिखतीं सर्वत्र |

--- प्रसिद्ध  कवयित्री रश्मि प्रभा दीदी को सादर समर्पित |  

तस्वीर

अपना पर्स खोलो...
मैं जानता हूँ उसके अन्दर
एक छोटा सा शीशा है,
जिसमें बड़ी साफ  तस्वीर
आती है नज़र |

देखो -
क्या यह वही है
जिसे तुम जानती हो
पहचानती हो ?

यदि नहीं है वह तस्वीर -
आँखों को मींचो,
होंठों को हल्का फैलाओ,
माथे के बल को
थोडा आराम दो,
बिंदी को थोडा
सीधा कर दो |

माना
अभी मौसम ठीक नहीं है
हवाएं गर्म हैं !
आँधियों से मत डरो,
थोडा इंतजार करो |

इंतजार की घड़ियाँ
परीक्षा की होती हैं,
छोटी, पर लम्बी दिखाती हैं,
असह्य होती हैं |

तूफान में तेजी होती है,
हिला देता है,
डरा देता है,
पर टिकता नहीं देर तक |

अपने को पहचानो
थोडा याद करो -
कई तूफान आये और गए
नहीं बिगाड़ पाए कुछ भी |
तुम निडर हो,
धैर्यवान हो,
बुद्धि-विवेक से परिपूर्ण |

हवाएं कितनी भी तेज़ हों
तुम्हें डिगा नहीं पाएंगी,
तिल भर खिसका नहीं पाएंगी,
तुम गिरिजा की मानस पुत्री |

फिर मैं...
हमेशा साथ तुम्हारे,
जैसे अर्जुन के रथ पर
कुरुक्षेत्र के समरांगन में |

चाहता हूँ देखना
विकट परिस्थितियों में
वही तुम्हारी तस्वीर -
मुस्कुराती, शांत,
साहस व धैर्य से परिपूर्ण
जिसे देखना चाहती थी
तुम जाने कब से,
जो अब देख रही तुम
अपने छोटे दर्पण में |
(c) हेमंत कुमार दुबे

बुधवार, 13 अप्रैल 2011

नैना देवी - एक दृश्य

नैना के दर्शन को 
रात को जब चला 
छबि अनूठी
नैनों में बस गयी |

पहाड़ की चोटी को  
देखा तो लगा
मानो मोतियों की 
माला पहने 
मुस्कुरा रही हैं 
नैना देवी |

आकाश की तरफ देखा
टिमटिमाते तारे 
दिवाली मनाते 
नजर आये |

धरती की तरफ देखा - 
सितारों जड़ी, 
काली शाल ओढ़े, 
मानो कोई दुल्हन 
खामोश बैठी हो
सकुचाती - लजाती |


(c) हेमंत कुमार दुबे 

मंगलवार, 12 अप्रैल 2011

नए युग का महासंग्राम - महाभारत


तुमने हमने मिलकर
उसे बनाया,
सीने से लगाया
पुचकारा, सहलाया,
और सुख लिया
उसके होने का |

बड़ा किया उसे
खिला-पिलाकर
खून-पसीने की
ईमानदारी की
कमाई से
सुखों की लालच में |

वह बढ़ता रहा
दिन दूनी रात चौगुनी,
चिपककर
चूसता रहा
जोंक की तरह
एक एक कतरा,
और अब रोके नहीं रूकता
विकराल रूप ले
राहू की तरह
ग्रसने लगा है
हमें,
समाज को |

गूँज रहा है नाम
हर जेहन में,
गलिओं में,
मोहल्लों में,
डरने लगा है
खौफ से,
भ्रष्टाचार के
नुकीले पंजों से,
विकराल दाढ़ों से,
आज का इंसान |

दबी आवाज में
विरोध करता रहा था
हर ईमानदार,
पर अब -
पांचजन्य फूंक दिया है
कृष्ण बनकर
अन्ना हजारे ने |

अर्जुन बने
बाबा रामदेव ने
बजा दिया है देवदत्त,
बज गए है शंख,
हेगड़े, किरण के,
बज गए हैं
ढोल-नगारे,
भ्रष्टाचार के विरुद्ध
प्रारंभ हो गया है -
नए युग का महासंग्राम, 
महाभारत |

(c) हेमंत कुमार दुबे

सोमवार, 11 अप्रैल 2011

झुग्गियां


आसमान से जब भी देखता हूँ
हरदम
वही दिखती हैं
काले लिबासों में
काली किस्मत वाली
भूरे-स्याह
सीमेंट-कंकरीट के
जंगलों में,
जिसे आज का मानव
शहर कहता है,
पालीथिनो से पटे,
काले नालों के किनारे,

रेल की पटरिओं के साथ, 
समानान्तर,
शोक मनाती हुई 
मरी हुई मानवता का,
और फिर भी 
संभालती हुई
शहर की बची-खुची 
धड़कनों को - 
झुग्गियां |

बुधवार, 6 अप्रैल 2011

क्रिकेट युद्ध और हम

वर्ल्ड कप वो खेल रहे थे
टेंशन था
वहां भी
यहाँ भी
देश कि प्रतिस्था का
सवाल था
सिर्फ इतना सा -
करोड़ बड़ा या लाख |

हमारे करोड़ों में से
क्या उन लाखों में से
चुने हुओं से जीतेंगे |

डर था,
शायद इसलिए
हम भी रन बना रहे थे -
होठों में,
बुदबुदा रहे थे नाम,
जीत के लिए
सारथी
कृष्ण का  |

मंगलवार, 5 अप्रैल 2011

मैं और मेरी चाहत

नहीं चाहता लिखना,
कोई कहानी,
या कविता,
क्योंकि -
दोनों ही उपजेंगे 
दिलो-दिमाग से,
स्वप्नवत |

नहीं चाहता देखना
कोई नई जगह,
नया दृष्य,
क्योंकि -
जो शाश्वत नहीं
उसे क्या देखना |

नहीं करना चाहता
तदात्म,
झूठ से,
झूठी दुनिया से,
क्योंकि - 
वह मैं  नहीं | 

ठहरो -
मैं करता हूँ
तदात्म,
खोल ज्ञान-चक्षु ,
निज - स्वरुप से |

बदल - अबदल में,
सत्य - असत्य में, 
धूप  - छांव में, 
मैं ही तो हूँ |

इसलिए तो लिखता हूँ ,
देखता हूँ,
पढ़ता हूँ,
सुनता हूँ , 
अनगिनत हाथों, नेत्रों, कानों से
और रहता हूँ 
हरपल हर जगह |

दुनिया क्या है

उसने पूछा
मुझे बताएं
कोई उपमा देकर समझाएँ
दुनिया क्या है,
कैसी है?

उत्तर सुन, 
नेत्र विस्मित, 
मुंह खुला,
अवाक रह गया |
एक शब्द काफी था -
गिरगिट |